Book Title: Jain Vidya evam Prakrit
Author(s): Gokulchandra Jain
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 327
________________ ३१० जनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन महाकवि स्वयंम्भू, पुष्पदन्त, वीर, नयनन्दि, धवल, धनपाल, गणि देवसेन, यशकीर्ति एवं रइधू जैसे महाकवि हुए जिनके काव्यों की तुलना किसी भी अन्य भाषा के काव्यों से की जा सकती है लेकिन अभी तक इन महाकवियों में से २-३ को छोड़कर शेष का पूरा मूल्यांकन भी नहीं हो पाया है। अभी तो हम प्रशस्ति संग्रहों के आधार पर उनकी कृतियों के नाम मात्र जान सके हैं। इसलिए अपभ्रंश साहित्य में शोधार्थियों के लिए विपुल क्षेत्र पड़ा हुआ है जिनमें कवियों का विस्तृत जीवनवृत्त, इनका काव्य निर्माण की दृष्टि से मूल्यांकन, अन्य कवियों से तुलनात्मक अध्ययन, उनके काव्यों का सांस्कृतिक एवं भाषागत अध्ययन, रस, अलंकार, छन्द की दृष्टि से काव्यों का महत्त्व आदि विविध रूपों में काव्यों का अध्ययन होना शेष हैं। वास्तव में अपभ्रंश साहित्य का जितना गहन अध्ययन होगा भारतीय साहित्य में जैन साहित्य को उतना ही अधिक स्थान प्राप्त होगा। यहाँ मैं एक बात की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ कि अभी तक राजस्थान, मध्य प्रदेश, देहली एवं उत्तर प्रदेश के कुछ ग्रन्थागारों का भी पूरा सचीकरण का कार्य नहीं हो सका है। राजस्थान का प्रसिद्ध ग्रन्थागार नागौर का भट्टारकीय शास्त्र भण्डार', कुचामन तथा अन्य कुछ नगरों के शास्त्र भण्डारों की खोज होना आवश्यक हैं इन भंडारों में सम्भवतः अपभ्रंश की कुछ और भी कृतियां संग्रहीत हों। जिनकी प्राप्ति के पश्चात् शोध के और भी नये क्षेत्र खुल सकते हैं। अपभ्रश साहित्य के प्रकाशन एवं उस पर शोध कार्य की अत्यधिक आवश्यकता है । एक एक ग्रन्थ के सम्पादन को लेकर एक एक शोध प्रबन्ध लिखा जा सकता है । क्योंकि अपभ्रंश हिन्दी की पूर्ववर्ती जननी मानी जाती है इसलिये विश्वविद्यालयों के प्राकृत, संस्कृत एवं हिन्दी विभागों में अपभ्रंश भाषा साहित्य पर शोध कार्य हो सकता है। अब मैं आपके समक्ष कुछ ऐसे विषयों का नामोल्लेख करता हूँ जिन पर शोध कार्य हो सकता है। शोध के लिए कतिपय विषय १. महाकवि स्वयम्भू-व्यक्तित्व एवं कृतित्व २. रिट्ठणेमिचरिउ का सांस्कृतिक अध्ययन ३. पउमचरिउ का सांस्कृतिक अध्ययन परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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