Book Title: Jain Vidya evam Prakrit
Author(s): Gokulchandra Jain
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 331
________________ जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन आरती, बोल, चरचा, विचार, बात, गीत, लीला, चरित्र, छंद, छप्पय, भावना, विनोद, काव्य, नाटक, प्रशस्ति, धमाल, चौढालिया, चौमासिया, बारामासा, बटोई, बेलि, हिंडोलणा, चूनडी, सज्झाय, बाराखडी, भक्ति, बन्दना, पच्चीसी, बत्तीसी, पचासा, बावनी, सतसई, सामायिक, सहस्रनाम, नामावली, गुरुवावली, स्तवन, संबोधन, मोडलो आदि विभिन्न रूपों में मिलता है। इन विविध साहित्य रूपों में किसका कब आरम्भ हुआ और किस प्रकार विकास और विस्तार हुआ ये शोध के लिये रोचक विषय हो सकते हैं और इन सबकी सामग्री जैन ग्रन्थागारों में मिल सकती है। विभिन्न विषयों के अतिरिक्त अभी तो सैकड़ों ऐसे कवि जो विद्वानों के लिए अज्ञात बने हुए हैं। ऐसे कवि १४वीं शताब्दी से लेकर १९वीं शताब्दी तक इतनी अधिक संख्या में हैं कि यहाँ पर उनके नाम मात्र उल्लेख करना भी संभव नहीं हैं। सबसे अधिक कवि १७वीं १८वीं एवं १९वीं शताब्दी में हुए। इसके अतिरिक्त जितने भी लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध कवि हुए वे भी १७वीं एवं १८वीं शताब्दी से ही अधिक संबंधित हैं। इनमें से एक-एक जैन कवि को शोध का विषय बनाया जा सकता है। यही नहीं ब्रह्म जिनदास, यशोधर, ब्रह्म रायमल्ल, बूचराज, छोहल, ठक्कुरसी, बनारसीदास, रूपचन्द, भगौतीदास, भूधरदास, दौलतराम कासलीवाल, द्यानतराय जैसे पचासों कवि तो ऐसे हैं जिनका विविध दृष्टियों से अध्ययन किया जा सकता है। जब सूर, तुलसी, मीरा, जायसी एवं कबीर पर एक नहीं किन्तु पचासों शोध निबन्ध लिखे जा सकते हैं तो इन जैन कवियों पर भी पचासों नहीं तो एक से अधिक शोध निबन्ध तो लिखे ही जा सकते हैं। जैसे जैसे ये कवि विश्वविद्यालयों में पहुंचेंगे विद्वानों का ध्यान उनकी रचनाओं पर जावेगा। अब मैं पचास ऐसे शोध के विषयों की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ जिन पर विश्वविद्यालयों में शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किये जा सकते हैं : १. हिन्दी के आदिकाल के जैन रास काव्य २. कविवर राजसिह-व्यक्तित्व एवं कृतित्व ३. ब्रजभाषा का प्रथम कवि सधारु एवं उनका प्रद्युम्नचरित ४. महाकवि ब्रह्म जिनदास के काव्यों का भाषागत अध्ययन ५. ब्रह्म जिनदास का रामसीता रास-एक अध्ययन ६. रास काव्य शिरोमणि ब्रह्म जिनदास परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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