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जनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन चरित को ब्रज भाषा का प्रथम महाकाव्य बतलाया है। जैन कवियों ने हिन्दी की सबसे अधिक एवं सबसे लम्बे समय तक सेवा की और उसमें अबाध गति से साहित्य निर्माण करते रहे। लेकिन हिन्दी के विद्वानों की जैन ग्रन्थागारों तक पहुँच नहीं होने के कारण वे उसका मूल्यांकन नहीं कर सके और जब हिन्दी साहित्य का क्रमबद्ध इतिहास लिखा जाने लगा तो जैन ग्रन्थागारों में संग्रहीत विशाल हिन्दी साहित्य को यह लिखकर साहित्य की परिधि से बाहर निकाल दिया कि वह केवल धार्मिक साहित्य है और उसमें साहित्यिक तत्त्व विद्यमान नहीं है । रामचन्द्र शुक्ल की इस एक पंक्ति से जैन विद्वानों द्वारा निर्मित हिन्दी साहित्य को राष्ट्रीय धारा में समाहित होने के दरवाजे बन्द हो गये और उसे आज तक भी राष्ट्रीय साहित्य में सम्मिलित नहीं किया जा सका है।
समय ने पल्टा खाया। जैन ग्रन्थागारों के ताले खुलने लगे । शनैः शनैः विद्वानों का जैन विद्वानों द्वारा रचित जैन कृतियों की ओर ध्यान जाने लगा। मिश्रबन्धु विनोद में कुछ जैन रचनाओं का परिचय दिया गया लेकिन स्वयं जैन विद्वान् भी अपने विशाल साहित्य से अपरिचित रहे । सर्व प्रथम स्व० पं० नाथूरामजी प्रेमी ने हिन्दी जैन साहित्य की ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया। सन् १९४७ में कामता प्रसादजी का हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास और सन् १९५६ में डॉ. नेमीचन्द्र शास्त्री का हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन ( दो भागों में ) प्रकाशित हुए। इसी बीच महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने स्वयम्भू के पउमचरिउ को हिन्दी का प्रथम महाकाव्य घोषित करके जैन हिन्दी साहित्य के महत्त्व को स्वीकार किया और हिन्दी जगत को उसे स्वीकार करने का आग्रह किया। लेकिन इतना होने पर भी अनेकान्त, जैन सिद्धान्त भास्कर, वीरवाणी, सम्मेलन पत्रिका, परिषद पत्रिका आदि में विभिन्न लेखों के प्रकाशन के अतिरिक्त जैन विद्वानों द्वारा रचित काव्य कृतियां सुसम्पादित होकर हिन्दी जगत के समक्ष प्रस्तुत नहीं की जा सकीं। इस दृष्टि से साहित्य शोध विभाग ने सर्व प्रथम सन् १९६० में प्रद्युम्नचरित एवं सन् १९६६ में जिनदत्तचरित का प्रकाशन कराकर इस क्षेत्र में पहल की। प्रद्युम्न चरित के प्रकाशन में हिन्दी जगत ने उसके महत्त्व को स्वीकार किया और सूरपूर्व ब्रज भाषा का उसे प्रथम काव्य स्वीकार किया गया तथा डॉ. वासुदेवसिंह ने अपने शोध प्रबन्ध में उस पर विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया। इधर सुप्रसिद्ध साहित्य सेवी श्री अगरचन्द जी नाहटा ने जैन
परिसंवाद-४
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