Book Title: Jain Vidya evam Prakrit
Author(s): Gokulchandra Jain
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 341
________________ ३२४ जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन उपलब्ध है। इस संपूर्ण साहित्य का काव्यशास्त्रीय, विशेषतः 'छन्द-शास्त्र एवं अलंकार विधान' की दृष्टि से और भाषा-शास्त्रीय, विशेषतः शैली-विज्ञान विषयक अनुशीलन महत्त्वपूर्ण होगा। महाकवि तुलसी की 'पार्वती मंगल एवं जानकी-मंगल जैसी रचनाओं का जैन रचनाकारों की 'विवाहलु' रचनाओं से क्या सम्बन्ध है ? आदिकालीन 'रासो काव्य परम्परा' का विकास खोजा जाना इसी आधार पर संभव है। इन रचनाओं के शोधपरक अनुशीलन से लोक-शैली की परम्परा ज्ञात हो सकेगी। इन रचनाओं में प्रयुक्त लोक 'शब्दावली का भाषाशास्त्रीय अनुसंधान' सर्वथा अछूती दिशा सिद्ध होगी। (ज) व्याकरण एवं छन्दशास्त्र से सम्बद्ध साहित्य-व्याकरणशास्त्र के विकास की छिन्न-भिन्न शृखलाओं को जोड़ने के लिए 'जैन-व्याकरणशास्त्र' का अनुसंधान भले ही कष्टसाध्य, समयसाध्य एवं धनसाध्य है, लेकिन है अनिवार्य ही। जैन-साहित्य मूलतः जनभाषा में रचा गया और जब बहुत सा साहित्य निर्मित ही हो गया होगा, तो स्वभावतः नाना प्रयोगों तथा शब्दरूपों को अनुशासित करने के लिए व्याकरण-शास्त्र की आवश्यकता हुई होगी।' अपभ्रंश-वैयाकरणों की व्याकरणकृतियों का 'कालक्रमानुसार शोध' आज की आवश्यकता है। हेमचन्द्राचार्य के 'शब्दानुशासन' में भाषा के तत्वों का विवेचन जैन-व्याकरण की सुपुष्ट परम्परा का द्योतक है। जैन-विचारकों का ध्यान छन्दशास्त्र एवं कोशविज्ञान पर भी गया है, फलतः छन्दशास्त्र की सुदीर्घ परम्परा अपभ्रंश में उपलब्ध है, जिसने आदिकाल, भक्तिकाल एवं रीतिकाल को प्रभावित किया था। स्वयंभू कृत 'स्वयंभू छन्द' जैसे अनेक ग्रन्थ सम्पादन एवं विवेचन की अपेक्षा रखते हैं। कोश-विज्ञान को अत्याधुनिक दिशा मानने वालों को अपभ्रंश की 'कोश-परम्परा' का ज्ञान कराना अनुसंधाताओं का दायित्व है। जैन-विद्या से संबद्ध अपभ्रंश एवं हिन्दी के जैन-साहित्य में शोध की व्यापक संभावनाएँ प्रत्येक क्षेत्र में परिव्याप्त हैं और विश्व की शोधप्रज्ञा के लिए यह खुला आमंत्रण बनकर प्रस्तुत है। इस साहित्य के शोध से जैन-धर्म, दर्शन, संस्कृति, कला, समाज, राजनीति एवं अन्यान्य क्षेत्रों में नवीन तथ्यों के उद्घाटन की संभावना से किसे इन्कार हो सकता है। १. डॉ० हीरालाल जैन : भारतीय संस्कृति के विकास म जैन-धर्म का योगदान, पृ० १८१ । परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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