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जनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन कि प्राकृत एवं जनविद्या के शिक्षण और अनुसन्धान कार्य को सुनियोजित करने के लिए ऐसे पाठ्यक्रम तैयार किये जायें जो सम्पूर्ण भारत में लागू हो सकें, मात्र शिक्षण के माध्यम का अन्तर हो । इसी प्रकार अनुसन्धान कार्यों के लिए प्राथमिकता (प्रायोरिटि) के आधार पर विषयों की तालिकाएं प्रकाशित की जायें। यह भी विचार व्यक्त किया गया कि उक्त कार्यों के लिए दो स्वतन्त्र वर्कशाप आयोजित किये जायें।
१६ मार्च को प्रातःकालीन सत्र के पूर्वार्द्ध की अध्यक्षता एल. डी. इन्स्टीट्यूट अहमदाबाद के पं. दलसुख मालवणिया ने तथा उत्तरार्ध को डूंगर कालेज, बीकानेर के प्राचार्य डॉ. महावीरराज गेलड़ा ने की। गोष्ठी के पूर्वार्ध में पूर्व सत्र के शेष निबन्ध तथा उत्तरार्ध में प्राकृत एवं जैनविद्या के अन्तरशास्त्रीय अध्ययन से सम्बद्ध निबन्ध प्रस्तुत हुए। अपराह्न सत्र के पूर्वार्द्ध की अध्यक्षता दिल्ली विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष तथा कला संकाय के प्रमुख डॉ. सत्यव्रत शास्त्री ने की। इसमें विविध विषयक शेष निबन्ध प्रस्तुत किये गये। समारोप
तीर्थंकर 'मासिक' के सम्पादक डॉ. नेमीचन्द्र जैन इन्दौर की अध्यक्षता में समापन सत्र सम्पन्न हुआ। डॉ. राधेश्यामधर द्विवेदी ने गोष्ठी का संक्षिप्त विवरण, प्रस्तुत किया। प्रो. रामशंकर त्रिपाठी, प्रो. जगन्नाथ उपाध्याय तथा डा. गोकुलचन्द्र जैन ने आयोजकीय प्रतिक्रिया व्यक्त की। डा० प्रेमसुमन जैन, डा. विलास संगवे, डा. एस. आर. बनर्जी तथा श्री अगरचन्द्र नाहटा ने संगोष्ठी में समागत प्रतिनिधियों की ओर से प्रतिक्रियाएं व्यक्त की। निम्नांकित बिन्दुओं को रेखांकित किया गया
१. यह संगोष्ठी वास्तविक अर्थों में अखिल भारतीय संगोष्ठी थी, जिसमें स्थानीय संस्थानों के साथ भारत के अनेक प्रान्तों, कर्णाटक, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बिहार, बंगाल, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश तथा दिल्ली से समागत विद्वानों ने भाग लिया।
२. प्राकृत एवं जैनविद्या के क्षेत्र में यह एक ऐतिहासिक गोष्टी मानी गयी जिसमें इस विषय पर पिछले बीस वर्षों में आयोजित गोष्ठियों की तुलना में सर्वाधिक विद्वान् सम्मिलित हुए।
३. विद्वानों का ध्यान इस ओर विशेष रूप से आकृष्ट हुआ कि यह सर्वप्रथम अवसर था, जब परम्परागत शास्त्रीय पद्धति के विद्वान् तथा आधुनिक पद्धति के
परिसंवाद-४
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