Book Title: Jain Vidya evam Prakrit
Author(s): Gokulchandra Jain
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 326
________________ अपभ्रंश एवं हिन्दी जैन साहित्य में शोध के नये क्षेत्र ३०९ हरिवंश कोछड़ ने "अपभ्रंश साहित्य" शीर्षक से शोध कार्य किया और आमेर शास्त्र भण्डार के प्रशस्ति संग्रह को ही अपनी खोज का मुख्य आधार बनाया। यही नहीं डॉ. रामसिंह तोमर, डॉ. देवेन्द्र कुमार इन्दौर, डॉ. देवेन्द्र कुमार नीमच एवं परमानन्द शास्त्री देहली एवं डॉ. नेमीचन्द शास्त्री, डॉ. राजाराम जैन, डॉ. भायाणी ने अपभ्रंश साहित्य को प्रकाश में लाने का अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य बनाया और समय-समय पर अपभ्रंश कृतियों पर लेख लिखकर विश्वविद्यालयों में शोध छात्रों का इस ओर ध्यान आकृष्ट किया। अब तक अपभ्रंश की जिन कृतियों का प्रकाशन हो चुका है उनमें महाकवि पुष्पदन्त के महापुराण, जसहर चरिउ, णायकुमार चरिउ, स्वयंभू का पउमचरिउ, वीर का जंबूसामि चरिउ, धनपाल का भविष्यदत्त कहा, अमरकीर्ति का छक्कम्मोपएस तथा महाकवि रइधू के ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं । ये सभी अपभ्रंश भाषा की उच्च स्तरीय रचनायें हैं जिनके अध्ययन एवं मनन से भारतीय संस्कृति एवं विशेषतः जैन संस्कृति का परिज्ञान होता है । अपभ्रंश साहित्य एवं काव्यों की विशाल संख्या को देखते हुए ये सभी प्रकाशन आटे में नमक के बराबर हैं । वास्तव में देखा जावे तो अपभ्रंश भाषा की कृतियों का अभी तो पूरा सर्वेक्षण भी नहीं हो सका है, क्योंकि राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश एवं देहली के शास्त्र भण्डारों के सूचीकरण का अभी पूरा कार्य होना शेष है । फिर भी जितनी संख्या में अपभ्रंश साहित्य सामने आया है वह अपने आप में महत्त्वपूर्ण है । डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री ने अपभ्रंश के १५० कवियों की तीन सौ रचनाओं और विभिन्न भण्डारों में संग्रहीत उनकी एक सहस्र प्रतियों का विवरण संकलित किया है । साथ ही इन्होंने अपभ्रंश भाषा से सम्बन्धित और प्रकाशित सामग्री का उल्लेख " अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ" पुस्तक में किया है । इधर विश्वविद्यालयों में अपभ्रंश साहित्य पर जो शोध कार्य हो रहा है इसकी गति बहुत ही धीमी है । इसलिए अपभ्रंश साहित्य पर शोध कार्य के लिए विशाल क्षेत्र शोधार्थियों के समक्ष पड़ा हुआ है । अभी तो अधिकांश उपलब्ध कृतियों का सामान्य अध्ययन भी नहीं हो सका है क्योंकि जो कुछ अध्ययन सामने आया है वह सब प्रायः ग्रंथ प्रशस्तियों के आधार पर लिखा हुआ है । अपभ्रंश साहित्य चरित प्रधान साहित्य है । उसमें अधिकांश रचनाएं नायक के समग्र जीवन को प्रस्तुत करती हैं इसलिये उसमें प्रबन्ध काव्य अधिक हैं खण्ड काव्य कम हैं । ८वीं शताब्दी से लेकर १५वीं शताब्दी तक अपभ्रंश में साहित्य निर्माण की जो धारा बही और उसमें परिसंवाद - ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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