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जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन
आबू का विश्वविख्यात ऋषभदेव मन्दिर है जो आज भी विद्यमान है । इसी के शासनकाल का कुंभारिया का सुन्दर महावीर मन्दिर भी है ।
सोलंकी नरेश कर्ण (लगभग १०६५-१०९३ ई.) के संबंध में इतना ही ज्ञात है कि उसने जैन साधु अभयतिलकसूरि को उनके गंदगी से रहने के कारण 'मलधारि' की उपाधि प्रदान की थी। 36 संभवतः कुंभारिया का वर्तमान शांतिनाथ मन्दिर इसी समय बना ।
सिद्धराज जयसिंह (लग० १०९३ - ११४३ ई.) के शासनकाल में जैनधर्म को बहुत प्रोत्साहन मिला। अपने पूर्वजों की तरह वह भी शैव था परन्तु जैनधर्म एवं के प्रति उसके मन में काफी सम्मान था । अभयदेवसूरि, कलिकालसर्वज्ञ हेमहेमचन्द्र मलधारि, वीराचार्य और इसी प्रकार अन्य जैनाचार्यों के प्रति वह मित्रवत् व्यवहार करता था 13: शान्तु, आशुक, वाग्भट, आनन्द, पृथ्वीपाल, मुंजाल और उदयन जैसे जैन उसके मन्त्रिमण्डल के सदस्य थे । ४° उदयन की सहायता से उसने खंगार पर विजय प्राप्त की और 'चक्रवर्ती' की उपाधि ग्रहण की । ४१
चन्द्र,
जयसिंह के शासनकाल से श्वेताम्बर जैनधर्म गुजरात का प्रमुख धर्म बन गया । प्रबन्धों के अनुसार उसके ही दरबार में दिगम्बरों एवं श्वेताम्बरों का एक बहुचर्चित वाद-विवाद सम्पन्न हुआ । इस वाद-विवाद में श्वेताम्बर आचार्य देवचन्द्रसूरि ने दिगम्बर आचार्य कुमुदचन्द्र को परास्त किया जिसके परिणामस्वरूप दिगम्बरों को गुजरात छोड़ना पड़ा । ४२ दिगम्बरों पर श्वेताम्बरों के प्रभुत्व का संकेत इस बात से भी होता है कि एक ओर जहाँ श्वेताम्बर मन्दिर एवं अभिलेखों की बहुतायत है वहीं दूसरी ओर दिगम्बरों के पुरातात्त्विक अवशेष नगण्य हैं | 3
जयसिंह के राज्यकाल में अनेक जैन मंदिरों का निर्माण हुआ । परन्तु इनमें केवल कुंभारिया के पार्श्वनाथ और नेमिनाथ मन्दिर, गिरनार का नेमिनाथ मन्दिर और सेजाकपुर का जैन मन्दिर ही आज विद्यमान हैं ।
जयसिंह ने जैन मन्दिरों का निर्माण कराकर तथा गिरनार एवं शत्रुंजय जैसे जैन तीर्थों की यात्रा कर जैनधर्म को पर्याप्त संरक्षण भी प्रदान किया। इतना ही नहीं, चौदहवीं सदी की एक प्रशस्ति में उल्लेख है कि उसने जैनधर्म स्वीकार कर यह आदेश जारी किया कि उसके राज्य के एवं अन्य स्थानों के जैन मन्दिरों पर स्वर्ण कलश एवं पताका लगाये जायें तथा प्रतिवर्ष पवित्र दिवसों पर पशुबध न किये जायें । ४* परन्तु पुष्ट प्रमाण के अभाव में यह निष्कर्ष निकालना कि जयसिंह बिलकुल
परिसंवाद ४
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