________________
१२९
जैनपुराणों में वर्णित प्राचीन भारतीय आभूषण
के अनुसार वस्त्र निर्माण कला के आविष्कार के साथ-साथ आभूषण का भी प्रयोग भारतीय सभ्यता के विकास के साथ प्रारम्भ हुआ ।' जैनपुराणों में शारीरिक सौन्दर्य
४
अभिवृद्धि के लिए आभूषण की उपादेयता प्रतिपादित की गई है । महापुराण में उल्लिखित है कि कुलवती नारियाँ अलंकार धारण करती थी, किन्तु विधवा स्त्रियाँ आभूषणों का परित्याग कर देती थीं । इसी ग्रन्थ में आभूषण से अलंकृत होने के लिए अलंकार-गृह और श्रीगृह" का वर्णन है । महापुराण में ही वर्णित है कि नूपुर, बाजूबन्द, रुचिक, अंगद (अनन्त), करधनी, हार एवं मुकुटादि आभूषण भूषणाङ्ग नाम के कल्पवृक्ष द्वारा उपलब्ध होते थे । प्राचीनकाल में आभूषण एवं प्रसाधनसामग्री वृक्षों से प्राप्त होने के उल्लेख मिलते हैं । शकुन्तला की विदाई के शुभावसर पर वृक्षों ने उसके लिए वस्त्र, आभूषण एवं प्रसाधन सामग्री प्रदान की थी । आभूषण बनाने के उपादान
जैनपुराणों में आपादमस्तक आभूषणों के उल्लेख एवं विवरण प्राप्त होते हैं । यह विवरण पारम्परिक वर्णक, समसामयिक तथा काल्पनिक तीनों प्रकार का है । जैन पुराणों में वर्णित है कि आभूषण का निर्माण मणियों, स्वर्ण, रजत आदि से होता था । महापुराण में उल्लिखित है कि अग्नि में स्वर्ण को तपाकर शुद्ध किया जाता था और इससे आभूषण को बनाते थे ।' रत्नजटित स्वर्णाभूषण को रत्नाभूषण कहते हैं । समुद्र में महामणि के बढ़ने का भी उल्लेख मिलता है ।" जैनपुराणों में विभिन्न प्रकार यों का वर्णन है जो निम्नलिखित हैं- चन्द्रकान्तमणि, सूर्यकान्तमणि, '
११
१७
1
वज्र ( हीरा ) १६, इन्द्रमणि ' ( हल्के गहरे नीले रंग की तथा गोमुख मणि, मुक्ता", स्फटिक
१२
हीरा, वैदूर्यमणि, कौस्तुभमणि ४, मोती (इन्द्रनील मणि) इसके दो भेद होते हैं- महाइन्द्रमणि इन्द्रनीलमणि ( हल्के नीले रंग की ); प्रवाल 13
1८
,
१. जे. सी. सिकदार -स्टडीज इन द भगवती सूत्र, मुजफ्फरपुर १९६४, पृ. २४१ ।
३. वही, ६८।२२५ ।
६. महा, ९।४१ ।
९. वही, ६३।४१५ ।
१२. वही, २।१० ।
१५. वही, २१०, महा ६८।६७६ ।
२. महा, ६२।२९ । ५. वही, ६३।४५८ । ८. महा, ६१।१२४ । ११. वही, २८ । १४. वही, ६२।५४ ॥
T
Jain Education International
४. वही, ६३॥४६१ । ७. अभिज्ञानशाकुन्तल, ४।५ । १०. हरिवंश, २७ ।
१३. वही, २।१० ।
१६. पद्म, ८० ७५, महा ३५।४२ । १७. महा, ५८।८६, पद्म, ८०।७५, हरिवंश, ७७२ ।
१८. हरिवंश, २०५४ ।
१९. महा, १२१४४, ३५।२३४ । २०. वही, १४।१४ । २१. वही, ७।२३१, १५।८१; हरिवंश, ७ ७३ ।
For Private & Personal Use Only
परिसंवाद ४
www.jainelibrary.org