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जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययनै
v तरलप्रबन्ध - जिसमें सर्वत्र एक समान मोती लगे हुए हों, वह तरल प्रबन्ध कहलाता है ६ ३ ।
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उपर्युक्त पाँचों प्रकार की यष्टियों के मणिमध्या तथा शुद्धा भेदानुसार दो विभेद और मिलते हैं ४ ।
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(क) मणिमध्या यष्टि - जिसके मध्य में मणि प्रयुक्त हुई हो । उसे मणिमध्या यष्टि कहते हैं । मणिमध्या यष्टि को सूत्र और एकावली भी कहते हैं । यदि मणिमध्या यष्टि विभिन्न प्रकार की मणियों से निर्मित की गई हो तो यह रत्नावली कहलाती है । जिस मणिमध्या यष्टि को किसी निश्चित प्रमाण वाले सुवर्ण, मणिमाणिक्य और मोतियों के मध्य अन्तर देकर गूंथा जाता है उसको अपवर्तिका कहते संज्ञा दी गई है ६ । बनाने का उल्लेख
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हैं । अमरकोष में मोतियों की एक ही माला को एकावली की सफेद मोती को मणिमध्या के रूप में लगाकर एकावली मिलता है ६ ७ ।
(ख) शुद्धा यष्टि -- जिस यष्टि के मध्य में मणि नहीं लगाई जाती है, उसे शुद्धा यष्टि कहते हैं ।
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२. हार - महापुराण के अनुसार हार लड़ियों के समूह को कहते हैं' हार में स्वच्छ रत्न का प्रयोग करते थे और ये कान्तिमान् होते थे । माला भी हार कहलाती है | मुक्ता- निर्मित माला मुक्ताहार कहलाती थी । हार मोती या रत्न से किये जाते थे । लड़ियों की संख्या के न्यूनाधिक होने से हार के ग्यारह प्रकार होते थे७' ।
१. इन्द्रच्छन्द हार - जिसमें १००८ लड़ियाँ होती थीं, उसे इन्द्रच्छन्द हार कहते थे । यह हार सर्वोत्कृष्ट होता था । इस हार को इन्द्र, जिनेन्द्र देव एवं चक्रवर्ती सम्राट् ही धारण करते थे७२ ।
६३. महा, १६।५४ ।
६५. महा, १६५०-५१ । ६७. वही, २।६।१५५ । ६९. पद्म, ३।२७७, ७१२, ८५।१०७, ८८३३१, १६।५८, ६३।४३४; हरिवंश, ७।८७ ।
७०. हारो यष्टिकलापः स्यात् । --- महा १६।५५ ।
७१. महा
१६।५५ ।
परिसंवाद -४
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६४. महा, १६।४९ ।
६६. अमरकोष, २.६, १०६ ।
६८. महा १६४९ ।
१०३।९४; महा, ३।२७, ३।१५६,
७२. महा १६।५६ ।
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