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आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास और प्राकृत तथा अपभ्रंश
३०५ सवार । पुष्पदंत महापुराण में लिखते हैं--"छुडू असवार वाहिय तुरंग' शीघ्र अश्वारोहियों ने घोड़े चलाए । आगे चलकर इसके अर्थ का विस्तार हो गया। सवारी करने वाले को सवार कहा जाने लगा। १७ लुकाठी
__“कबिरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ"
लुकाठी का अर्थ शब्द कोशों में जलती हुई लकड़ी है। मूल शब्द ज्वलितकाष्ठिका है । संस्कृत ज्वल से दो विकास संभव हैं, जल और वल । ज्वलित काष्ठिका>वलिअकट्ठिआ> उलकठिआ>लुकट्ठिआ>लुकठि >लुकाठी। कबीर की तरह घरफूक तमाशा दिखाने में ज्वलितकाष्ठिका भी पीछे नहीं है।
१८ भौंहरा- भूमिगृह का विकास है। भूमिगृह > भुइंहर > भंउहर> भौंहर> भौंहरा।
१९. भुनसार – 'भानुशाला' से विकसित भुनसार कई भाषाओं और बोलियों में प्रचलित है । भानु के दो अर्थ हैं सूर्य और प्रभा। भानुशाला यानी प्रभा का घर यानी भोर या तड़के । भानुशाला >भानु साल >भानुसार >भिनसार दूसरा रूप भुनसार। भिनसार पूर्वी हिंदी में अधिक प्रचलित है : जैसे 'बिलपत नृपहिं भयेउ भिनुसारा' ( मानस २।३७ ) 'कहत रामगुन भा भिनुसारा' ( वही ) 'भा भिनसार किरन रवि फूटी ( पदमावत )
'भुनसारे सोन चिरैया काय बोली' सबेरे-सबेरे सोन चिड़या क्यों बोली ? बुन्देलखंडी लोकगीत।
२०. पगड़ी-संस्कृत प्रावृ धातु से प्रावर बनता है, जिसका अर्थ है आच्छादन। प्राकृत में इसके लिए पंगुर शब्द है जिसका विकास, प्रा । वृ से कल्पित है । पंगुर> पग्गुर>पग्गर >पग्गड़ स्त्रीलिंग में पगड़ी। पगड़ी के कई अर्थ हैं, नजराना या भेंट, पगड़ी बांधना, पगड़ी लेना, पगड़ी देना इत्यादि। पग्गुर से पग्ग >पाग रूप भी संभव हैं। सूरसागर में इसका प्रयोग है। “दधि ओदन भर दोनों देहों अरु आंचल की पाग।" एक और शब्द है 'पगहा' “आगे नाथ न पीछे पगहा" । पगहा यानी लगाम । इसका विकास संस्कृत प्रगह > पग्गह पगहा के रूप में हुआ। योग है 'जहिं परहि धवलु परिग्गा' जहाँ बैल को रस्सी से पकड़ा गया है।
२१. अनाड़ी अनाड़ी के मूल में अज्ञानी शब्द है, न कि अन्यायकारी, या अनार्य, जैसा कि क्रमशः डा० उदयनारायण तिवारी और डा० देवेन्द्रनाथ शर्मा समझते हैं। अनार्य से खींचतान कर अनाड़ी सिद्ध किया जा सकता है। परन्तु उसका अर्थ होगा निंद्य, आर्येतर पापी या दुष्ट, जबकि अनाड़ी का अर्थ है विवेकहीन
परिसंवाद-४
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