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जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन
(३) अनुप्रेक्षा-पढ़े हुए पाठ का मन से अभ्यास करना अर्थात् उनका पुनः
पुनः मन से विचार करते रहना अनुप्रेक्षा है। (४) आम्नाय-जो पाठ पढ़ा है उसका शुद्धतापूर्वक पुनः-पुनः उच्चारण
- करना आम्नाय है। (५ घर्मोपदेश-धर्म कथा करना धर्मोपदेश है।
स्वाध्याय विधि का उपयोग प्रज्ञा में अतिशय लाने के लिए, अध्यवसाय को प्रशस्त करने के लिए, परम संवेग के लिए, तप में वृद्धि करने के लिए तथा अविचारों में विशुद्धि लाने आदि के लिए किया जाता है।
___ इस प्रकार हम देखते हैं कि गूढ़ से गूढ़ विषय को भी इस रूप में प्रस्तुत किया जाता था कि शिष्य उसे भली प्रकार हृदयंगम कर सके । इसके लिए विषय वस्तु को सूत्र रूप में कहा जाता था, क्योंकि उस युग में सम्पूर्ण शिक्षा मौखिक और स्मृति के आधार पर चलती थी। इसी कारण प्रारम्भिक साहित्य सूत्र रूप में मिलता है।
__ कभी-कभी विषयवस्तु को गेय रूप में भी प्रस्तुत किया जाता था जिससे उसे कण्ठस्थ किया जा सके । कथाओं के माध्यम से भी विषयवस्तु को कहा जाता था जिससे उन प्रसंगों के साथ मूल वस्तुतत्त्व को याद रखा जा सके ।
इन्हीं पद्धतियों का विभिन्न रूपों में विकास हुआ । जैसे सूत्र की व्याख्या की गई जिसे वार्तिक कहा गया। वार्तिक के बाद टीका और वृत्ति लिखी गई। नियुक्ति, भाष्य, चूणि नामक विशेष विवरण तैयार किए गए।
जैन शिक्षा विधि की एक विशेषता यह भी रही है कि जैन आचार्यों ने मुख्य रूप से सदा लोक भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया। उन्हीं भाषाओं को साहित्यिक स्वरूप देकर उनमें ग्रंथों की रचना की । इन भाषाओं को जनसामान्य की भाषा होने के कारण प्राकृत कहा गया तथा विभिन्न क्षेत्रों के अनुसार इनके अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि नाम दिए गये। बाद में यही भाषाएँ अपभ्रंश हुईं और कन्नड़, तमिल, तेलुगु, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, मगही, मैथिली, भोजपुरी आदि के रूप में विकसित हुईं।
संस्कृत को भी जैन शिक्षकों ने शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाया तथा संस्कृत में विभिन्न विषयों पर अनेक ग्रंथों की रचना की ।
जैन बाला विश्राम,
आरा, बिहार।
परिसंवाद-४
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