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जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन
कैसे विकसित होती है, इसकी ओर हमारा ध्यान जाना चाहिए। वैदिक छान्दस के बाद एक भाषा 'संस्कृत' 'लौकिक संस्कृत' या 'भाषा' के नाम से बनाई गई । प्रारम्भ में अनेकानेक जनभाषाओं का इसमें योगदान था । उसी के आधार पर कृत्रिमता से बोझिल एवं जटिल नियमों से आबद्ध एक भाषा बनी, जो संस्कृत थी । इस भाषा को छान्दस के बाद ही संयोजित किया गया, जो जनभाषाओं के समानान्तर खड़ी हुई जो एक छोटे वर्ग की सांस्कृतिक भाषा बनी। इसके पीछे जन-जीवन से पृथक् रहने की धार्मिक एवं सांस्कृतिक प्रेरणा थी । भाषाविदों से यह तथ्य छिपा नहीं है कि जो भाषा साहित्यिक बनती है, उसकी सामान्य प्रवृत्ति जनभाषा एवं जनजीवन से दूर रहने के रूप में उभरती है। अल्पसंख्यक अभिजात वर्ग की भाषा होने से संस्कृत में यह प्रवृत्ति अधिक उग्र थी । संस्कृति के साथ भाषा का तादात्म्य, सम्बन्ध या किसी प्रकार का अनिवार्य सम्बन्ध नहीं होता है, किन्तु संस्कृति का सर्वाधिक शक्तिमान् संप्रेषक माध्यम भाषा ही है, इसमें भी विवाद नहीं है । वर्णों, जातियों की उच्चता-नीचता, सेवा और श्रम का अवमूल्यन, स्त्री, शूद्र, अन्त्यज एवं जनजातियों के अधिकारों का हनन आदि जिस समाज रचना का आधार बन गया है, उसके आचार-विचार की कालव्यापी परम्परा को यदि 'संस्कृति' नाम देना है तो उस अर्थ में संस्कृत अवश्य संस्कृति की प्रतिनिधि भाषा है । इस स्थिति में 'संस्कृत आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी है,' इस मान्यता का अभिप्राय सिर्फ इतना ही हो सकता है कि स्वतः एवं सहज प्रवहमान जनभाषाओं को उनके स्वभाव से च्युत कर उनका संस्कृतीकरण करने की प्रवृत्ति आज भी संस्कृत में बनी हुई है ।
ऊपर संस्कृत के संबन्ध में जो कुछ कहा गया है उसका उद्देश्य उसका अवमूल्यन करना या एक विशेष ऐतिहासिक संदर्भ के द्वारा प्राप्त उसके महत्त्व को कम करना नहीं है । अपितु, भारतीयता के विराट संदर्भ में उसका सही मूल्यांकन करना है । फिर उसके प्रसंग से विभिन्न काल के उन जन-भाषासमूहों एवं जन संस्कृतियों का महत्त्वांकन उद्देश्य है, जिनका प्रतिनिधित्व भाषा की दृष्टि से पालि, प्राकृत और अपभ्रंशों द्वारा हुआ है । साथ ही इसका निर्धारण भी आवश्यक है कि भाषा की वे कौनसी स्वगत प्रवृत्तियाँ हैं और संस्कृति के वे कौनसी स्वगत प्रवृत्तियाँ हैं और संस्कृति के वे कौन से तत्त्व हैं जिनके कारण स्थानीय जनभाषाओं के आधार पर उद्गत एवं विकसित होकर भी संस्कृति के समान अन्य भाषाएँ भी अपनी वास्तविक लौकिकता छोड़ने लगती हैं, और संस्कृति के वे कौन से तत्त्व हैं, जो उसे लोक-जीवन से विमुख करने लगते हैं। क्योंकि देखा
परिसंवाद -४
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