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सांस्कृतिक संकट के बीच प्राकृत
प्रो. जगन्नाथ उपाध्याय भारतीयता के लिए सांस्कृतिक संकट यह है कि उसके विराट् स्वरूप को, जिसे सहस्राब्दियों में विद्या, त्याग और तपस्या के बल पर उसने उपार्जित किया था, या तो छिपाया जाता है या उसे विकृत रूप में प्रस्तुत किया जाता है। एक ओर भारतीय धरती का यह सौभाग्य रहा है कि प्राक्-इतिहासकाल से ही लगातार दर्जनों मानववंशी समूहों और सैकड़ों विशिष्ट जातियों ने इसे अपनी मातृभूमि बनाया और अपने-अपने धर्म, दर्शन, संस्कृति, कला एवं आध्यात्मिक तत्त्वचेतना से इसे ऐसा सुसमृद्ध किया, जिससे यह संभावना जाग उठी कि इसके द्वारा मानव जाति को एक विश्व मानव संस्कृति का अवदान प्राप्त हो। किन्तु दूसरी ओर दुर्भाग्य यह है कि इसके विराट सांस्कृतिक चेतना के स्वरूप को उभरने न देने के लिए अनेक दूरभिसंधिपूर्ण चेष्टायें की गई। देश के इस अपमानपूर्ण इतिहास-खण्ड के प्रति इस प्रकार की अनवरत चेष्टा ही उत्तरदायी है। अपनी सांस्कृतिक यात्रा के आदि काल में ही यह मंगलकामना की गई थी कि यहाँ से सारे विश्व में श्रेष्ठता का प्रसार होगा। उस समय मनीषियों का यह उद्गार था कि जो भूमा है, वही सुख है, जो अल्पता है वही मृत्यु है। हिमालय, सिन्धु और गंगा की उपत्यका से उठनेवाले इस मानवीय जयघोष को जिस महाप्रमाद ने अपने अहंकार के प्रचण्ड कोलाहल में अनसुना कर दिया और जिस हृदय-दौर्बल्य की प्रचण्डता ने इस देश की विराट् आत्मा को क्षुद्रता की ओर ढकेल दिया, उसकी अवसादपूर्ण परिणति का दायित्व भी हमारी उस ऐतिहासिक अक्षमता पर ही है। इस दुष्प्रवृत्ति ने हमारे तेजस्वी जीवन पर चतुर्दिक प्रहार कर, विराट को क्षुद्रता का अभ्यास कराया। आज भी हमारे सामाजिक अभ्यास, उसके स्वभाव और शक्ति-संघात पर इस हीन प्रवृत्ति का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। इस बड़े देश में यह जितना फैला है, उतना गहरा भी है। इसलिए इस ऐतिहासिक तथ्य के पुंखानु¥ख विश्लेषण के बिना भारतीय जीवन में स्थित गहरे अवसाद का निदान नहीं किया जा सकता और न उसका उपचार । इन कारणों की खोज में प्राचीन भारतीय साहित्य के साक्ष्य प्रस्तुत हैं, विशेषकर प्राकृत, पालि आदि के आगमों के विशाल साहित्य में।
परिसंवाद-४
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