Book Title: Jain Vidya evam Prakrit
Author(s): Gokulchandra Jain
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 318
________________ आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास और प्राकृत तथा अपभ्रंश डॉ० देवेन्द्र कुमार जैन प्राकृत, संस्कृत के समानान्तर एक व्यापक भाषा थी, जो एक ओर भारतीय आर्यभाषा की मध्यकालीन अवस्था का प्रतिनिधित्व करती है और दूसरी ओर उसके लोक तत्त्वों को सुरक्षित रखती है। संस्कृत और प्राकृत में कौन प्राचीन है, यह एक विवादभरा प्रश्न है। जिसका उत्तर ढूढ़ने के लिए पूर्व भारतीय आर्यभाषा के विकास की विभिन्न भूमिकाओं का अध्ययन करना होगा। हमारी कठिनाई यह है कि इन भूमिकाओं के लिखित आलेख उपलब्ध नहीं हैं। प्राकृत की प्राचीनता इस तथ्य से सिद्ध है कि उसमें और ऋग्वेद की भाषा में कुछ ऐसे समान भाषिक तत्त्व मिलते हैं जो संस्कृत में नहीं हैं। प्राकृतों की चर्चा के संदर्भ में आचार्य हेमचन्द्र ने 'अनादि प्राकृत' का उल्लेख किया है, इससे उनका अभिप्राय उस 'प्राकृत' भाषा से है जो ऋग्वेद की भाषा और संस्कृत की पूर्ववर्ती भाषा थी, जिसे हम आदि भारतीय आर्यभाषा कह सकते हैं ? लेकिन आज जो प्राकृत साहित्य उपलब्ध है वह संस्कृत के उत्तरकाल का है ? संस्कृत और प्राकृत, उसी पूर्ववर्ती आर्यभाषा रूपी सिक्के के दो पहलू हैं। जब उसे निश्चित नियमों में ढाला जाता है तो वह संस्कृत है और जब वह सहज वचन व्यापार के रूप में प्रयोग में लाई जाती है तो प्राकृत है। अपभ्रश, इस सहज वचन व्यापार का परवर्ती बढ़ाव है, जो मध्यकालीन और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के विकास की महत्त्वपूर्ण कड़ी है। संस्कृत आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के उद्गम और विकास के लिए 'भाषोत्री' का कार्य करती है इसमें सन्देह नहीं, परन्तु यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि वह लोक प्रयोग के मैदानी इलाकों में प्रवेश कर परिवर्तन की जिस प्रक्रिया से गुजरती है, उसके तत्त्व प्राकृत और अपभ्रश में सुरक्षित हैं ? उनके अध्ययन के बिना भारतीय आर्यभाषा के बिकास को नहीं समझा जा सकता। प्राकृतों की रचना प्रक्रिया का अध्ययन करते समय यह देखना ज्यादा वैज्ञानिक है कि उनमें क्या समानताएँ हैं, तथा जो भिन्नताएँ हैं उनके मूलभूत समान स्रोत क्या हैं ? इस प्रकार परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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