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प्राकृत तथा अन्य भारतीय भाषाएँ
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विभक्तियों का अदर्शन तथा परसर्गों का प्रयोग प्राकृत अपभ्रंश के प्रभाव से हिन्दी में होने लग गया है। किसी भी जनभाषा के लिए इन प्रवृत्तियों से गुजरना स्वाभाविक है । वही हिन्दी भाषा जन-जन तक पहुंच सकती है, जो सुगम और सुबोध हो।
इस प्रकार प्राकृत विभिन्न कालों और क्षेत्रों की भारतीय भाषाओं को निरन्तर प्रभावित करती रही है। आधुनिक भारतीय भाषाओं की संरचना और शब्द तथा धातुरूपों पर भी प्राकृत का स्पष्ट प्रभाव है। यह उसकी सरलता और जन-भाषा होने का प्रमाण है। न केवल भारतीय भाषाओं के विकास में अपितु इन भाषाओं के साहित्य की विभिन्न विधाओं को भी प्राकृत अपभ्रंश भाषाओं के साहित्य ने पुष्ट किया है। यह इस बात का प्रतीक है कि राष्ट्रीय एकता के निर्माण में भाषा कितना महत्त्वपूर्ण माध्यम होती है। संस्कृति की सुरक्षा भाषा की उदारता पर ही निर्भर है। प्राकृत अपभ्रश भाषाएं इस क्षेत्र में अग्रणी रही हैं। उन्हीं का प्रभाव आज की भारतीय भाषाओं में है। तभी उनमें अनेक भाषाओं के शब्द संग्रहीत हो पाते हैं। डॉ० कत्रे के शब्दों में कहा जाय तो मध्यकालीन भारतीय आर्य-भाषाओं का भाषावैज्ञानिक दृष्टि से प्राचीन और नवीन भारतीय आर्य-भाषाओं के निर्माण में स्पष्ट योगदान है और यह एक मजबूत कड़ी है, जो कि प्राचीन और नवीन को जोड़ती है।
सन्दर्भ
१. सुकमार सेन, ए कम्पेरेटिव ग्रामर आफ मिडिल इण्डो आर्यन लेग्वेजेज । २. पिशेल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण । ३. देवेन्द्र कुमार शास्त्री, अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियां । ४. उदयनारायण तिवारी, हिन्दी भाषा का उद्गम और विकास । ५. रत्ना श्रेयान, ए क्रिटीकल स्टडी आफ महापुराण आफ पुष्पदन्त । ६ ए० एन० उपाध्ये, कन्नड वर्डस इन देशी लेक्जनस् । ७. नामवर सिंह, हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग । ८. जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत एण्ड हिन्दी। ९. नेमिचन्द्र शास्त्री, भोजपुरी भाषा में प्राकृत तत्त्व । १०. वशिष्ठ नारायण झा, प्राकृत एण्ड मैथिली। ६.११. के० बी० त्रिपाठी, प्राकृत एण्ड उड़िया। १२. प्रेमसुमन जैन, राजस्थानी भाषा में प्राकृत तत्त्व ।
परिसंवाद-४
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