________________
सांस्कृतिक संकट के बीच प्राकृत
२४३
गया है कि अलौकिक होने की इन प्रवृत्तियों ने एक सीमा के बाद पालि, प्राकृत और अपभ्रंशों को भी प्रभावित किया । इस स्थिति में विचार करना होगा कि क्या जनजीवन से दूर होना भाषा और संस्कृतियों की नियति है या इसके विपरीत इनका कोई अपना स्वतन्त्र पुरुषार्थ भी है, जिससे वे अपनी सहजता को कायम रख सकें । इसके विश्लेषण के आधार पर ही हम इसके निर्धारण में भी सक्षम होंगे कि जनभाषाओं, उनकी प्रतिनिधि भाषाओं तथा उनके द्वारा प्रकाशित जीवन-दर्शन की समस्याएँ क्या हैं और उनकी सहज एवं स्वाभाविक गति वहाँ और क्यों अवरुद्ध होती है ।
वैदिक छान्दस भाषा से आधुनिक भारतीय भाषाओं को जोड़ने वाली भाषापरंपरा है प्राकृत, जिसने अपने सहज स्वभाव एवं निरन्तर विकसनशील गति के कारण विभिन्न पालि, प्राकृतों और अपभ्रंशों के नाम से १७०० वर्षों से अधिक आयु को शिलालेखों, आगमों, नाटक, काव्य एवं विभिन्न साहित्यों में पूर्ण वैभव के साथ सुरक्षित रखा । इस संबंध में इन तथ्यों पर विशेष ध्यान रहना चाहिए कि प्राकृतों का उद्भव संस्कृत से नहीं हुआ । उसकी जीवन-धारा संस्कृत से पूर्व बहुत प्राचीन काल से प्रवाहित थी और संस्कृत के आदि से उसके पूरे काल में उसके समानान्तर अपने पूर्व-पूर्वं स्वतंत्र स्रोत से चलकर उत्तरोत्तर कालों में विस्तृत एवं गंभीर होती चली गई। इतना ही नहीं, उसके द्वारा प्रकाशित जीवन-दर्शन, सामजिक एवं धार्मिक मान्यताएँ और ऐतिहासिक उपलब्धियाँ संस्कृत की प्रमुख विचारधारा ब्राह्मणवाद से नितांत भिन्न थीं । यही कारण है कि इतिहास के प्रारंभकाल से ही भारतीय साहित्य में श्रमण एवं ब्राह्मण के मौलिक भेद और विरोध को बार-बार दुहराया गया है । जब श्रमण और ब्राह्मण नामों के द्वारा भेद किया जाता है तो उसका संदर्भ सांस्कृतिक होता है, जातिवादी नहीं, क्योंकि जाति की दृष्टि से श्रमणों में भी ब्राह्मण पर्याप्त मात्रा में रहे हैं । इसी प्रकार ब्राह्मण संस्कृति में ब्राह्मणेतर भी प्रचुर संख्या में मिलते हैं । इस प्रसंग में कुछ लोग इतिहास की भ्रांतिपूर्ण व्याख्या करना चाहते हैं कि श्रमण संस्कृति ब्राह्मणवाद की प्रतिक्रिया में उद्गत हुई या ब्राह्मणधारा के अन्तर्गत ही यह एक उत्क्रांति थी, जिसका उद्देश्य ब्राह्मण-परंपरा में उदार संशोधन लाना था, जबकि ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर श्रमणों की प्राचीनतम परंपरा को अन्यथा नहीं किया जा सकता। इस संबंध का प्राग-ऐतिहासि विवाद यहाँ प्रासंगिक नहीं होगा । अच्छा यही होगा कि प्राकृतों के इतिहासकालिक
परिसंवाद -४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org