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जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन इस प्रसंग में सर्व प्रथम श्रमणों की इस प्रवृत्ति का ऐतिहासिक विश्लेषण अवश्य होना चाहिए कि उन्हें परवर्तीकाल में संस्कृत भाषा का आश्रय ग्रहण करने की क्या विवशतायें थीं। यह ठीक है कि संस्कृत स्वयं में एक भाषा मात्र थी, जिसे अर्थ संप्रेषण का माध्यम स्वीकार करना, आपत्ति नक नहीं होना चाहिए। अथापि छान्दस से उतरकर संस्कृत को 'लौकिक' बनाने में श्रमण आचार्यों का महान् योगदान है। यहाँ तक कि बौद्धों के महायान सूत्रों का एक विशाल साहित्य एक ऐसी लौकिक संस्कृत में है, जिसे 'गाथा संस्कृत', 'मिश्रित संस्कृत' या 'संकर संस्कृत' कहा जाता है, जिसका अनुशासन, पाणिनीय अनुशासनों से नितांत भिन्न है। जैनों के धवला और जय धवला ग्रन्थों में भी प्राकृत और संस्कृत दोनों भाषाओं को 'मणि-प्रवाल' न्याय से जोड़कर भारतीय चिन्तन को लोक हित के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इतने के बावजूद श्रमणों का प्रयास संस्कृत को लोक-भाषा नहीं बना सका, क्योंकि संस्कृत जिनके घर की भाषा थी, वह उनके धर्म एवं कर्मकाण्ड की भी भाषा थी। उसके साथ एक ऐसी संस्कृति थी, जो हजारों वर्ष के प्राकतों के साथ संघर्ष में अपने को बचा चुकी थी और जिसने अपने सीमित आयाम में ही उत्तरोत्तर अपनी विशिष्टता में वृद्धि की।
अन्यान्य ऐतिहासिक कारणों से श्रमण जब दुर्बल होते गये तो उन्होंने अपनी रक्षा के लिए ब्राह्मण-संस्कृति और संस्कृत के विशिष्टतावाद को अंगीकार करना प्रारंभ कर दिया। विशिष्टतावाद के ग्रहण की इस प्रवृत्ति ने उन्हें प्रबल तो नहीं बनाया, पर इसके विपरीत उससे उनका सर्वजन का परम्परागत संबंध टूटता गया, जिससे उत्तरोत्तर उनकी परंपरागत संस्कृति और भाषा जन-समर्थन से दूर होती गई।
अश्वघोष ने अपने संस्कृत नाटक में प्राकृत को स्थान दिया। किन्तु जिन मुखों से वह निकली वे विशिष्ट वर्ग के नहीं थे, स्त्री और शूद्र पात्रों के तथाकथित अपवित्र मुख थे। भाषा के माध्यम से विशिष्टता कैसे प्रवेश करती है अश्वघोष उसके महत्त्वपूर्ण निदर्शन हैं। अश्वघोष प्रारंभिक जीवन में महान् वैदिक पण्डित थे, बाद में महाश्रमण बुद्ध के मानवतावादी प्रभाव में आकर श्रमण भिक्षु बने । श्रमणघर्म का जनसाधारण के अन्दर प्रसार ही उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था। इसी की पूति में उन्होंने भिक्षु-विनय के किंचित् विरोध में जाकर 'बुद्ध चरित' और 'सौन्दरानन्द' जैसे महाकाव्यों का सर्जन किया और जनसाधारण में जाकर उसका संगीत के साथ गान किया। कहा जाता है कि अश्वघोष द्वारा बुद्धचरित आदि के
परिसंवाद-४
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