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प्राकृत भाषा : एक अविच्छिन्न धारा
___डॉ० कमलेशकुमार जैन भाषावैज्ञानिकों ने प्राकृत भाषा को भारोपीय परिवार की मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं ( ५०० ई० पू० से १००० ई० तक ) के अन्तर्गत स्वीकार किया है। इस भाषा का अपना विशेष महत्त्व है, क्योंकि इसके समुचित ज्ञान के अभाव में अन्य किसी प्राचीन अथवा अर्वाचीन भारतीय भाषा के साहित्य का समुचित ज्ञान एवं आनन्द प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
प्राकृत भाषा के उद्भव एवं विकास को लेकर विद्वानों में पर्याप्त वैमत्य है। संस्कृत के विद्वान् प्राकृत की उत्पत्ति संस्कृत से मानकर संस्कृत की प्राचीनता अथवा श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं। प्राकृत भाषा के मूल के विषय में वे प्राकृत-वैयाकरणों द्वारा प्रस्तुत व्युत्पत्तियों को साक्ष्य बनाते हैं। प्राकृत-वैयाकरणों ने प्राकृत की व्युत्पत्ति करते समय प्राकृत का मूल संस्कृत को बतलाया है। आचार्य हेमचन्द्र प्राकृत की व्युत्पत्ति करते हुये लिखते हैं --"प्रकृतिः संस्कृतं तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम्'' अर्थात् प्रकृति संस्कृत है और उससे उत्पन्न अथवा आयी हुई भाषा प्राकृत है। इसी प्रकार वाग्भटालंकार के एक पद्य की व्याख्या करते हुये सिंहदेवगणि ने लिखा है कि-"प्रकृतेः संस्कृताद् आगतं प्राकृतम्"३ अर्थात् प्रकृति संस्कृत है और उससे आयी हुई भाषा प्राकृत है। प्राकृत की संस्कृतमूलक उक्त व्युत्पत्तियों का वास्तविक मन्तव्य समझे बिना यह मत व्यक्त किया जाता है कि प्राकृत का मूल संस्कृत है और उसी से प्राकृत भाषा का विकास हुआ है। अतः यहाँ यह विचारणीय है कि प्राकृत का मूल क्या है तथा इस सन्दर्भ में प्राकृत वैयाकरणों की व्युत्पत्तियाँ कहाँ तक तर्कसंगत हैं।
१. सिद्धहेमशब्दानुशासन, १/१ वृत्ति । २. संस्कृतं स्वर्गिणां भाषा शब्दशास्त्रेषु निश्चिता ।
प्राकृतं तज्जतत्तुल्यदेश्यादिकमनेकधा ।। ----वाग्भटालंकार ( सिंहदेवगणिकृत टीका सहित ), हिन्दी टीकाकार-डॉ० सत्यव्रतसिंह,
चौखंबा विद्याभवन, चौक, वाराणसी-१, सन् १६५७, २/२ । ३. वही, २/२ वृत्ति ( सिंहदेवगणिकृत )।
परिसंवाद-४
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