________________
प्राकृत भाषा : एक अविच्छिन्न धारा
२६१
भाषा की धारा को साहित्यिक भाषा के स्वरूप में बाँधने में न तो समर्थ हुआ है और न होगा । इस तथ्य को एक छोटे से उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है। गंगा की धारा गंगोत्री से प्रारम्भ होकर गंगासागर में विलीन होती है। यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक है कि इस प्राकतिक रूप से बहने वाली गंगा की धारा को क्या कोई रोक सकता है । अथवा क्या इस निम्नगा धारा के प्रवाह को अवरुद्ध किया जा सकता है ? इसका उत्तर नकारात्मक ही होगा। क्योंकि गंगा की धारा को रोकने के लिए कोई कितना ही बड़ा वाँध बना दे, किन्तु धारा या तो उस बाँध को तोड़कर या ऊपर से बहकर आगे बढ़ेगी या अपने पूर्व मार्ग को बदलकर । लेकिन स्वतंत्रतापूर्वक आगे बढ़ेगी अवश्य । यही बात प्राकृत भाषाओं के साथ है ।
जब विभिन्न प्राक़तें/देशी भाषाएँ साहित्यारूढ़ होकर प्राकृत व्याकरण सम्मत । हो गई तब प्राकृतों/देशी भाषाओं का प्रवाह तटबन्ध तोड़कर आगे बढ़ गया और वहाँ जो बोलियों का साहित्य के रूप में विकास हुआ, उसे कालान्तर में अपभ्रंश कहा गया। अपभ्रंश भी जब साहित्यारूढ़ हो गई तो उस तटबन्ध को तोड़कर जो जनबोली आगे बढ़ी, उससे जो बोलियाँ विकसित हुई, वे नव्य भारतीय आर्य भाषाओं के रूप में विकसित हुई। मगही, जूनी, गुजराती, ढूंढारी, बुन्देलखण्डी, बघेली आदि बोलियाँ भी इसी प्राकृत के विकसित रूप हैं। विभिन्न क्षेत्रों में बोलियों के रूप में जो व्यवहार होता है, उसमें विभिन्न प्राकृतों/अपभ्रंशों के शब्द मूल रूप में अथवा किञ्चित् परिवर्तन के साथ प्रचुर मात्रामें उपलब्ध होते हैं। तात्पर्य यह कि प्राकृत भाषा एक ऐसी धारा है, जो वैदिक काल के पहले से ही आज तक बहती चली आ रही है । आज भी स्त्रियों एवं बच्चों की बोलचाल की भाषा में इधर को इहर, बाबू को बाऊ, जाओ को जो आदि अनेक रूप दिखेंगे, जो प्राकृत भाषा की धारा के ही अंग हैं। यह बोलचाल में प्रयुक्त होने वाली भाषा समय-समय पर गंगा की धारा की भाँति अपना आकार-प्रकार बदलती हुई आगे बढ़ो है, बढ़ रही है । अतः प्राकृत भाषा की उत्पत्ति संस्कृत जैसी किसी साहित्यिक भाषा से मानना संगत नहीं है।
प्राकृत को स्वभावसिद्ध प्राचीनकाल से चली आने वाली भाषा मानने पर यह प्रश्न सामने आता है कि आचार्य हेमचन्द्र आदि कुछ प्राकत वैयाकरण प्राकृत की उत्पत्ति संस्कृत से क्यों मानते हैं ? इसका समाधान यह है कि प्राकृत. वैयाकरण मूलतः संस्कृत के विद्वान हैं और उनके समक्ष प्राकृत व्याकरण लिखने के लिए संस्कृत भाषा आधारभूत थी। अतः उन्होंने प्राकत शब्दों की व्युत्पत्ति के लिए
परिसंवाद-४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org