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(४०) अल्पप्राण का महाप्राण महऋ १-२२-११)
( ४१ ) समीकरण
पक्कृ (ऋ १-६६-२)
(४२) स्वरभक्ति
अंकिर (यजु १२ - ८- १)
सुवर्ग ( तै० ४, २-३ )
तनुवं ( तै० सं० ७-२२-१)
(४३ ) शब्द रूपों में समानता
यथा
वैदिक
देवो (ॠ १-१-५) प्रथमा एकवचन
देव (ऋ१-१३-११)
देवेभिः तृतीया बहुवचन
जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन
मख, मुख
पक्वः
अंकार, उत्तम
स्वर्गः
तन्वम्
परिसंवाद -४
प्राकृत में कारकों की कमी तथा उनका आपस में प्रयोग प्रायः देखा जाता है । वेदों में भी चतुर्थी विभक्ति के स्थान में षष्ठी, तृतीया के स्थान पर षष्ठी आदि कारकों का परिवर्तन प्राप्त होता है । इसी तरह नाम रूपों में प्रयुक्त कई प्रत्यय भी प्राकृत और वैदिक में समान हैं । सर्वनामों में भी कई प्रयोग समान देखे जाते हैं । इसी तरह वैदिक में प्राकृत की तरह द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग पाया जाता है । तथा कुछ शब्द विभक्ति रहित भी प्रयुक्त होते हैं ।
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संस्कृत
देव :
देवैः
संस्कृत
सो (ऋ० १३,१००, ४) स ( ऋ१३,८२, ४) सः यो (ऋ १३,८१,६) जो (ऋ ७,३३,१२) यः
ये (ऋ ५,१९,६)
य (ऋ ५,१९,४) य ( ऋ १३,७४, २)
मुह
पक्को
प्राकृत में प्रयुक्त हरिणो, गिरिणो. राइणो, आदि शब्द रूपों की तरह वैदिक में भी सुरणो (ॠ ३ - २९-१४), घर्मणो ( ऋ १ - १६० - १) कर्मणो ( ऋ १-११- ९७) आदि
कई रूप प्रयुक्त होते हैं ।
(४४) सर्वनाम शब्द रूप
वैदिक
उत्तिम
सुवग्गो
तणुमं
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प्राकृत
देवो, देव
देवेह
प्राकृत
सोस
जो, ज, जे
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