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वैदिक भाषा में प्राकृत के तत्त्व
डॉ० प्रेमसुमन जैन, डॉ० उदयचन्द्र जैन भारतीय आर्यशाखा परिवार की भाषाओं को विद्वानों ने जिन तीन वर्गों में विभाजित किया है वे इस प्रकार हैं
१. प्राचोन भारतीय आर्यभाषा। २. मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा। ३. आधुनिक भारतीय आर्यभाषा ।
भाषाशास्त्र के इतिहास में विद्वानों ने जो अध्ययन प्रस्तुत किये हैं उनसे यह सामान्य निष्पत्ति हुई है कि इन सभी आर्यभाषाओं का एक दूसरे के साथ सम्बन्ध है। वैदिक भाषा, संस्कृत, प्राकृत एवं आधुनिक आर्यभाषाओं पर स्वतन्त्र रूप से कई अध्ययन प्रस्तुत हो चुके हैं। कुछ इन भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन से भी सम्बन्धित हैं। किन्तु वैदिक भाषा और प्राकृत भाषा के तुलनात्मक अध्ययन की दिशा में कोई स्वतन्त्र रूप से और गहराई से कार्य हुआ हो, ऐसा हमारे देखने में नहीं आया है। प्राकृत भाषा पर कार्य करने वाले विद्वानों ने अवश्य ही प्रसंगवश प्राकृत और वैदिक भाषा की समान प्रवृत्तियों की संक्षेप में चर्चा की है, किन्तु वैदिक भाषा और व्याकरण पर देशी-विदेशी विद्वानों के जो ग्रन्थ हम देख सके हैं, उनमें वैदिक भाषा में प्राकृत के तत्त्वों का संकेत भी नहीं मिलता।' प्राचीन भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन की दिशा में यह स्थिति निराशाजनक ही कहो जायेगी। अध्ययन सामग्री
प्राकृत भाषाओं का अध्ययन प्रस्तुत करते समय डॉ० पिशेल, पं० बेचरदास दोशी, डॉ० प्रबोध पंडित, डॉ० कत्रे, डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री आदि विद्वानों ने अपने ग्रन्थों में वैदिक भाषा में प्राकृत तत्त्वों के विवेचन के कुछ संकेत दिये हैं। ये संकेत इस दिशा में इस कार्य को करने के लिए प्रेरणादायी हैं। कुछ भाषाविदों में डॉ. सुनीतकुमार चटर्जी, डॉ० सुकुमार सेन, प्रो० तगारे, डॉ० भयाणी, डॉ० गुणे आदि ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि वैदिक भाषा के साथ-साथ जो जनबोली चल रही थी वह प्राकृत का प्रारम्भिक रूप है और उससे कुछ समान तत्त्व वैदिक भाषा और प्राकृत
परिसंवाद-४
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