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सांस्कृतिक संकट के बीच प्राकृत
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व्यवस्था तथा गुणस्थानों एवं भूमिभेदों के आधार पर योग एवं विविध साधनाओं की व्यवस्था द्वारा जीवन की जो अध्यात्म-प्रवणता निर्धारित की गई वही भारतवर्ष का अपना आध्यात्मिक वर्चस्व माना गया। ऐसे विषयों से संबंधित प्राचीनतम एवं विस्तृत साहित्य का अन्यत्र मिलना संभव नहीं है। जीवन के आन्तर और बाह्य पक्षों से सम्बन्धित विद्याओं का इतना बड़ा वैभव पालि और प्राकृतों के माध्यम से विकसित होना तथा उसका समान्य जनजीवन के साथ सम्बन्ध जोड़े रखने का निरन्तर प्रयास करना, अल्पसंख्यक संस्कृति की अपेक्षा श्रमण-संस्कृति को भारतीयता का विशाल आयाम प्रदान करता है।
उपर्युक्त सम्पूर्ण चर्चा के बाद यह प्रश्न समाधान की नितांत अपेक्षा रखता है कि पिछले हजार वर्षों से पालि-प्राकृतों के प्रभाव में उत्तरोत्तर ह्रास होना, जिससे कि उसका सर्व भारतीय प्रतिनिधित्व निःशेष-सा हो जाय, उसके पीछे क्या क्या कारण हैं ? यह प्रश्न अन्य अनेक ऐतिहासिक प्रश्नों को उठाता है, जिसका विवेचन यहां संभव नहीं है, किन्तु इस मूल बात की ओर हमारा ध्यान जाना चाहिए कि पालि प्राकृतों के ह्रास के पीछे जबरदस्त सांस्कृतिक पराजय ही कारण है । वास्तव में पालि प्राकृत का पराजय भारतीय संस्कृति की ऐतिहासिक उदारता का और सर्व भारतीय लोक-संस्कृति का पराजय था। यह भी संभव है कि आक्रामक अल्प-संख्यक संस्कृति ने अपने में उन अपेक्षित गुणों को आत्मसात् किया हो जो श्रमणों की कभी एकमात्र विशेषता थी। कारण के रूप में यह भी संभावित है कि श्रमणों की दुर्बलता और विरोधी आक्रमण का सामना करने की अक्षमता के पीछे उनके अपने स्वयं के दुर्गुण हों, जिन्हें उन्होंने परवर्ती संघर्ष काल में अपनाया हो। इसी प्रकार के प्रश्नों के समाधान के बिना आज आगमों के गौरवशाली एवं महत्त्वपूर्ण होते हुए भी उसकी समस्या खड़ी है । इस पूरी परिस्थिति को एक वाक्य में कहा जा सकता है कि आगमों की समस्या उसका सांस्कृतिक संकट है। ऐतिहासिक निष्कर्षों के आधार पर यह स्पष्ट है कि पालि, प्राकृत आदि का बहिष्कार सिर्फ भाषा-बहिष्कार नहीं, अपितु संस्कृति-बहिष्कार है। इस संकट का रूप केवल बौद्धों, जैनों या अन्यान्य सन्त सम्प्रदायों की दृष्टि से देखना संकट के आयाम को छोटा समझना होगा। वास्तव में यह भारतीय संस्कृति और भारतीयता का संकट है, जिससे आज की प्रायः सभी मूलभूत राष्ट्रीय समस्याएं साक्षात् या परंपरया जुड़ी हैं, आज इनका विवेचन नितांत अपेक्षित है।
परिसंवाद-४
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