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जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन
उद्गम और विकास द्वारा प्रतिफलित निष्कर्षों के आधार पर ही वास्तविकता का आकलन किया जाय।
विदित है कि श्रमण-परंपरा अनेक भागों में विभक्त थी। किन्तु ईसापूर्व पाँचछः सौ वर्षों के मध्य उसके दो सशक्त आन्दोलन खड़े हुए, जिसके महान् नायक थे भगवान महावीर और भगवान् बुद्ध। यह युगान्तकारी उत्क्रांति आर्यों के मध्य में ही खड़ी हुई, जिसने प्रेरणाएं पूर्वागत श्रमण-परंपरा से प्राप्त की और समसामयिक वैदिक जीवन-दर्शन एवं उसकी सामाजिक व्यवस्था को मानव-हित का विरोधी समझकर मानव-श्रेष्ठता प्रधान धर्मों का उपदेश किया। दोनों श्रमण-परंपराओं में परस्पर मत-वैचित्र्य होते हुए भी अनेकानेक ऐसी समान मान्यताएँ थीं, जिनसे श्रमणों की विशिष्टता तथा ब्राह्मणवादी परंपरा से उसका मौलिक भेद एवं विरोध स्पष्ट हुआ।
श्रमणों ने देव-श्रेष्ठता और ईश्वरवाद का विरोध करके मानव-श्रेष्ठता के सिद्धान्त को प्रतिष्ठित किया । ब्राह्मण एवं राजन्यों के अन्तहीन साम्राज्यवादी आयाम को धार्मिक आवरण में सुरक्षित करने के प्रधान उद्देश्य से प्रस्थापित यज्ञीय कमकाण्ड का विरोध कर श्रमणों ने उसे आध्यात्मिक साधनाओं की दिशा प्रदान की। यज्ञ को केन्द्र बनाकर उसके चतुर्दिक एक ऐसी संस्कृति का प्रभामण्डल खड़ा होता था, जिसमें जन्म से उत्कृष्ट समझा जानेवाला वर्ग सब प्रकार के लाभान्वित हो और इतर लोक वंचित रहे । सिर्फ पशु-हिंसा के ही कारण श्रमणों ने यज्ञ का विरोध किया, यह कहना मानव-प्रजा के शोषण-विरोधी इस ऐतिहासिक आन्दोलन को हल्का बनाना है। सत्य यह है कि श्रौतयाग साम्राज्यवादी शोषण का धार्मिक मंच था। इसी दृष्टि से इतिहास की तथ्यात्मक व्याख्या होनी चाहिए। इसी संदर्भ में श्रमणों का गणतन्त्रों के प्रति पक्षपात को भी ग्रहण करना चाहिए। शब्दों की नित्यता, उसकी सर्वोच्च पवित्रता और अकाट्य प्रामाण्य की जगह श्रमणों ने अर्थ की पवित्रता के सिद्धान्त को मुखरित किया। शब्द को उन्होने केवल अर्थ-संप्रेषण के लिए माध्यम मात्र स्वीकार किया। मानव-हित श्रमणों का आदर्श था, इसलिए उन्होंने छान्दस भाषा का षेिध करके अपने उपदेशों का माध्यम जनभाषाओं को स्वीकार किया। एक ओर वर्णवाद और जातिवाद के विरोध में श्रमणों ने मानव-समता का सिद्धान्त प्रतिष्ठित किया और दूसरी ओर स्त्री, शूद्र, अन्त्यज एवं चांडालों तक को अध्यात्म का अधिकार प्रदान किया। समता, श्रम और शांति की प्रतिष्ठा के आधार पर
परिसंवाद-४
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