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सांस्कृतिक संकट के बीच प्राकृत
२४४ भारतीय विश्वविद्यालयों एवं संस्थानों में धर्म, दर्शन, संस्कृति एवं इतिहास से संबंधित किसी विषय पर शोध या विशिष्ट अध्ययन का कार्य किया जाता है तो उसका गन्तव्य एवं उसकी दिशा प्रायः पूर्व निर्धारित रहती है। ऋग्वेद से यात्रा प्रारंभ कर उपनिषद्, महाभारत, धर्मसूत्र, स्मृतियाँ, पुराण तक, उसी से संबंधित काव्य एवं षड्दर्शन के विमर्श तक। इतने से ही अध्ययन पूर्ण समझ लिया जाता है। भारतीय संस्कृति तथा भारतीय विद्याओं के अध्ययन का यही 'अथ एवं इति' मान ली जाती है। वास्तव में भाषा एवं विषय की दृष्टि से संस्कृति की यह एक संकीर्ण वीथि है, जिसे भारतीय संस्कृति के अध्ययन का राजमार्ग बताया जाता है। इस प्रसंग में भारतीय भाषाओं के इतिहास तथा उसके भाषा-वैज्ञानिक निष्कर्षों को या तो आँख ओझल कर दिया जाता है या उसे भी अन्यथा रूप में प्रस्तुत किया जाता है। वैदिक भाषा के संयोजन के पीछे तत्कालीन जनभाषाओं के अवदान की चर्चा हम यहाँ न भी करें, तो भी हमारा ध्यान इस ओर अवश्य आकृष्ट रहना चाहिए कि वैदिक भाषा का आधुनिक भारतीय भाषाओं के साथ नैरन्तर्य कैसे जोड़ा जाय । इस गहरे अन्तराल को मात्र संस्कृत से जोड़ने की चेष्टा की जाती है। यह ठीक है कि संस्कृत का जीवन दीर्घकालीन है, किन्तु इसका जीवन कभी समग्न भारतीय जनजीवन का प्रतिनिधि नहीं था, यह भी छिपा नहीं है। समाज के अल्प-संख्यकों का, उसमें भी वर्गविशेष का ही तो जीवन उसमें प्रतिफलित हुआ। फलतः संकृत ने न तो नवजीवन एवं जनभाषा से स्वयं प्रेरणा प्राप्त की और न अपनी विशिष्टता से जनजीवन का स्पर्श ही किया। यही कारण है कि संस्कृत कभी सहज नहीं बन सकी। अपनी कृत्रिमता के बल पर वह 'देववाणी' बनने के प्रयास में लगी रही। यह भी ध्यान देने की बात है संस्कृत द्वारा देववाणी' बनने का प्रयास किया गया, कभी भी 'देवीवाणी' नहीं। संस्कृत की इस विरोधी पृष्ठभूमि में विज्ञजनों द्वारा यह निष्कर्ष निकालना और उसे प्रसारित करना कितना हास्यप्रद, अस्वाभाविक एवं अवैज्ञानिक है कि
१. संस्कृत ही भारतीय संस्कृति है। २. वर्तमान भारतीय भाषाएँ संस्कृत से ही उत्पन्न हैं।
उक्त प्रकार की अवधारणा पर ही भारतीयता की समग्रता को न उभरने देने का प्रमुख उत्तरदायित्व है । संस्कृत ही यदि भारतीय संस्कृति है, तो हम भारतीयता को कितना खण्डित एवं आंशिक रूप देते हैं, इसकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। भाषा का संस्कृति के साथ क्या संबन्ध है और अपने सहज रूप में वह
. परिसंवाद-४
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