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जैन शिक्षा : उद्देश्य एवं विधियाँ का प्रतीक है और पंगु ज्ञान का अर्थात् ज्ञान और चरित्र अलग-अलग रहकर व्यक्ति का समग्र विकास नहीं कर सकते। इनके साथ एक शर्त और है, वह है सम्यग्दर्शन की। सम्यग्दर्शन न हो तो ज्ञान और चरित्र भी बेकार हैं। सम्यग्दर्शन का अर्थ है मूल तत्त्वों का सही बोध । सम्यक् तत्त्वबोध के बिना ज्ञान और चरित्र सम्यक् नहीं हो सकते।
इन तीनों को इस प्रकार समझा जा सकता है१. मूल तत्त्वों का सही बोध । २. तत्त्वों की सही सैद्धान्तिक जानकारी ।
३. वस्तु तत्त्वों का प्रायोगिक ज्ञान । शिक्षा विधियाँ
शिक्षा के इस महान् उद्देश्य की प्राप्ति के लिए जैन वाङ्मय में शिक्षा विषय, शिक्षा विधि, शिक्षा के माध्यम, गुरु एवं शिष्य का स्वरूप और शिक्षा संस्थाओं एवं शिक्षा केन्द्रों के बारे में अत्यन्त व्यवस्थित और विस्तृत विवरण प्राप्त होता है । तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आदि ग्रन्थों में इनका विस्तार से विश्लेषण किया गया है। यहाँ पर केवल शिक्षा विधि के बारे में ही मैं कुछ कहूंगी।
शिक्षा के सम्पूर्ण विषय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र के अन्तर्गत समाहित हो जाते हैं। इन तीनों को सम्मिलित रूप से मोक्ष का मार्ग कहा गया है। जो तत्त्व जिस रूप में अवस्थित हैं, उनका ठीक उसी रूप में बोध होना, उनका प्रामाणिक रूप से सविवरण ज्ञान होना तथा व्यावहारिक रूप में उन्हें जीवन में उतारना, यह इनका तात्पर्यार्थ है। इसके लिए तत्त्वार्थसूत्रकार ने दो विधियाँ बतायी हैं
१. निसर्ग, २. अधिगम । निसर्गविधि
निसर्ग का अर्थ है स्वभाव । स्वयंप्रज्ञ व्यक्ति को गुरु और आचार्य द्वारा शिक्षा प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं रहती। जीवन के विकासक्रम से वे स्वतः ही ज्ञान विज्ञान के विभिन्न विषयों को सीखते जाते हैं। तत्त्वों का सम्यक् बोध वे स्वतः प्राप्त करते हैं। उनका जीवन ही उनकी प्रयोगशाला होता है। सम्यक् बोध और सम्यक् ज्ञान की उपलब्धियों को वे जीवन की प्रयोगशाला में उतार कर सम्यक् चरित्र को उपलब्ध करते हैं । यह निसर्गविधि है । ४. निसर्गः स्वभाव इत्यर्थः । यद् बाह्योपदेशादृते प्रादुर्भवति तन्नैसर्गिकम् । सर्वार्थसिद्धिः १.३ ।
परिसंवाद ४
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