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जैनपुराणों में वर्णित प्राचीन भारतीय आभूषण
१३५ २. विजयच्छन्द हार-जिसमें ५०४ लड़ियाँ होती थीं उसे विजयच्छन्द हार की संज्ञा दी जाती थी। इस हार का प्रयोग अर्धचक्रवर्ती और बलभद्र आदि पुरुषों द्वारा किया जाता था । सौन्दर्य की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण हार होता था।
३. हार-जिस हार में १०८ लड़ियाँ होती थीं, वह हार कहलाता था ।
४. देवच्छन्द हार-वह हार होता था, जिसमें मोतियों की ८१ लड़ियाँ होती थीं।
५. अर्द्धहार-चौसठ लड़ियों के समूह वाले हार को अर्द्धहार की संज्ञा दी गई है ६ ।
६. रश्मिकलाप हार-इसमें ५४ लड़ियाँ होती थी एवं इसकी मोतियों से अपूर्व आभा निःसरित होती थी। अतः यह नाम सार्थक प्रतीत होता है ७७ ।
७. गुच्छहार-बत्तीस लड़ियों के समूह को गुच्छहार कहा गया है ।
८. नक्षत्रमाला हार-सत्ताइस लड़ियों वाले मौक्तिक हार को नक्षत्रमाला हार कहते हैं। इस हार के मोती अश्वनी, भरणी आदि नक्षत्रावली की शोभा का उपहास करते थे । इस हार की आकृति भी नक्षत्रमाला के सदृश होती थी।
९. अर्द्धगच्छ हार मुक्ता की चौबीस लड़ियों का हार अर्द्धगुच्छ-हार कहलाता था ।
१०. माणव हार-इस हार में मोती की बीस लड़ियाँ होती थीं।"
११. अर्द्धमाणव हार-वह हार अर्द्धमाणव कहलाता था, जिसमें मुक्ता की दस लड़ियाँ होती थीं. २ । यदि अर्द्धमाणव हार के मध्य में मणि लगा हो तो उसे फलक हार कहते थे। रत्नजटित स्वर्ण के पाँच फलक वाला फलकहार ही मणिसोपान कहलाता था। यदि फलकहार में मात्र तीन स्वर्णफलक होते थे तो वह सोपान होता था । ७३. महा, १६५७।
७४. महा, १६।५८, हरिवंश, ७८९ । ७५. महा, १५।५८ ।
७६. महा, १६।५८ । ७७. महा, १५१५९।
७८. महा, १६।५९ । ७९. महा, १६१६० ।
८०. महा, १६।६१ । ८१. विंशत्या माणवाह्वयः ।-महा, १६॥६१ । ८२. भवेन्मौक्तियष्टीनां तदर्द्धनार्द्धमाणवः ।-महा, १६।६१ । ८३. महा, १६।६५-६६ ।
परिसंवाद-४
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