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जैनयोग, आधुनिक संत्रास एवं मनोविज्ञान
डॉ. मंगला
योग आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया है, जिसका मूल भारत के सुदूर इतिहास में छिपा हुआ है । जहाँ तक जैनयोग का सम्बन्ध है, पर्याप्त प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि उसके प्रारम्भ की नींव भगवान् महावीर से भी पूर्व ऋषभदेव के काल में निहित है ।
जैन आगमों में योग पद मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक क्रियाओं के लिए प्रयुक्त हुआ है, ' ये वे क्रियाएँ हैं, जो एक प्रकार से बंधन का ही कारण हैं । स्पष्ट है कि यह अर्थ योग के प्रचलित अर्थ से एवं पातंजलयोग के अर्थ से अत्यन्त भिन्न है; क्योंकि पातंजलयोग के अनुसार मुक्ति की ओर ले जाने वाले मानसिक व्यापारों का निरोध एवं उस निरोध में सहायक होने वाले साधन योग हैं । पातंजलयोग के इस अर्थ के साथ साम्य रखनेवाले शब्दों को जैन आगमों में खोजा जा सकता है, जैसे कि अयोग, संवर, निर्जरा, तप आदि । आगे चलकर हरिभद्रसूरि, हेमचन्द्राचार्य जैसे आचार्यों ने इस अर्थ में अर्थात् योग साधना के अर्थ में योग शब्द को भी प्रचलित किया है । यहाँ इसी अर्थ में योग शब्द का प्रयोग किया जा रहा है । योग के सामान्य अर्थ से जैन विचारधारा पातंजलयोग से सहमत होती हुई भी अपनी तत्त्वमीमांसीय मान्यता के कारण उससे भिन्नता भी रखती है । जहाँ पातंजलयोग के अनुसार चित्त प्रकृति का ही एक उत्पादन है, अतः पुरुष आत्मा से भिन्न है और पुरुष से भिन्न होने के कारण ज्ञान, आनंद जैसी उसकी वृत्तियों का परिणमनों का निरोध पुरुष की अपनी स्वरूपावस्थिति के लिए उसी परिणमन का, जो कि कषायों से या कर्मों से उत्पन्न आत्मिक परिणमन है और जिसे हम वैभाषिक परिणमन भी कह सकते है, निरोध अनिवार्य है और चूँकि जैनयोग के अनुसार ज्ञान, आनन्द जैसे गुण आत्मा के निजी गुण है अतः आत्मा की अपनी स्वरूपावस्थिति के लिए उन गुणों का निरोध नहीं, परन्तु उनका चरम शुद्ध विकास आवश्यक है ।
जैनयोग के अनुसार योग-साधना की प्राथमिक शर्त सम्यग्दर्शन है, जिसके आधार पर ज्ञान एवं चरित्र को सम्यक्ता निर्धारित होती है । सम्यग्दर्शन अपने सूक्ष्मरूप में आत्मप्रतीति या आत्मस्वरूप की ओर उन्मुखता है एवं स्थूल रूप में या
परिसंवाद-४
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