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जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन अपने व्यावहारिक रूप में जीवादि पदार्थों का यथार्थ रूप से निश्चय करने की रुचि है। यहाँ ध्यान देने योग्य है कि आत्मस्वरूप की प्रतीति में न केवल आत्मा के अस्तित्व में विश्वास, परन्तु ज्ञान दर्शनादि गुणों से युक्त आत्मा में विश्वास निहित है, और यहीं पर जैनयोग पातंजलयोग से अपनी भिन्नता स्थापित करता है और वह उसकी तुलना में योग के लक्ष्य के रूप में सद्-चित् आनन्द रूप आत्मस्वरूप को स्वीकार कर योग के लिए अधिक विधेयात्मक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से अधिक सुसंगत आधार प्रस्तुत करता है।
जहाँ तक योग की प्रक्रिया का सम्बन्ध है, पातंजलयोग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि के रूप में योग की सुव्यवस्थित एवं क्रमबद्ध रूपरेखा प्रस्तुत करता है। वह सामाजिक संदर्भ में उत्पन्न होनेवाले विकर्षणों को दूर करने के लिए यम और नियम की, स्थूल शरीर से उत्पन्न होने वाले विकर्षणों को दूर करने के लिए आसन एवं प्राणायाम की, ऐन्द्रिय विषयों से उत्पन्न होने वाले विकर्षणों को दूर करने के लिए प्रत्याहार की, विकारों को, संस्कारों को, भूतकाल की घटनाओं से बंधे रहने की, एवं भविष्य के स्वप्नों में लीन होने की वृत्ति जैसे अनेक मानसिक विकर्षणों को दूर करने के लिए धारणा, ध्यान तथा समाधि की अवधारणा का विवेचन करता है। इन सभी तत्त्वों से साम्य रखनेवाले तत्त्व हमें जैन आगमों एवं जैन प्राचीन ग्रन्थों में भी प्राप्त होते हैं, जिन पर हम आगे संक्षिप्त रूप से विचार करेंगे।
व्रत (यम)-जैन विचारधारा ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह को व्रत के रूप में मान्यता दी है। अहिंसा समस्त प्राणियों के विषय में आत्मवत् भाव या साम्यभाव है एवं तदनुकूल आचरण है । सत्य मन, वचन और कर्म की एकरूपता में एवं वचन की प्रामाणिकता में निहित है। अस्तेय न दिए हुए दूसरों को किसी भी वस्तु को ग्रहण न करना है। ब्रह्मचर्य अपने सामान्य अर्थ में आत्मा के शुद्ध स्वरूप की ओर गति करना है एवं अपने विशेष अर्थ में कामभोगों से विरत होना है । अपरिग्रह अपने अमर्त रूप में संग्रह का त्याग है । जैनयोग के अनुसार सभी व्रतों में अहिंसा का प्रमुख स्थान है, अन्य व्रत उसके लिए हैं या उसके ही विभिन्न रूप हैं । इन व्रतों का
आंशिक पालन अणुव्रत है एवं पूर्णतः पालन महाव्रत है । यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि सर्वप्रथम गृहस्थों के लिए अणुव्रतों का उल्लेख करने वाले योगसूत्र से पहले वैदिक परम्परा में भिक्षु या संन्यासी के इन व्रतों का उल्लेख गृहस्थ के लिए इस रूप में नहीं हुआ है। यद्यपि पातंजल योगसूत्र में यम और महाव्रत में सीमानिरपेक्षता के आधारपर भेद-रेखा खींची गयी है। फिर भी उसमें महाव्रतों की ओर ले जाने वाले
परिसंवाद-४
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