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सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरप्रदेश के कतिपय विशिष्ट जैन व्यापारी के पद पर नियुक्त किया था। ये दोनों भाई व्यापार कुशल तथा धार्मिक कार्यों में धन लगाने वाले थे। इन्होंने तीन भवनवाली पौषधशाला का निर्माण करवाया था। शत्रुजय, आबू, गिरनार, सम्मेतशिखर आदि तीर्थों की संघ सहित यात्रा करके संघाधिपति की उपाधि प्राप्त की थी।६५ इनके पास पशुओं का एक समूह था, जिसमें १२५ घोड़े, २५ हाथी आदि थे। इन्होंने दो विशाल जिन चैत्यों का निर्माण करवाया था, जिनमें ऊँचे-ऊँचे चित्र एवं झंडे आदि लगे थे ।६६
अन्य लेखों से पता चलता है कि इन्होंने मिर्जापुर में भी एक जिन मन्दिर बनवाया था ।६७ पटना में भी इनके द्वारा प्रतिमा-प्रतिष्ठा का उल्लेख मिलता है।६८ सम्भवतः ये व्यापार को ध्यान में रखते हुए लगभग १६१५ ई. पटना नगर में जा बसे थे। यद्यपि इनका नाम सन् १६१० ई. के आगरा संघ के विज्ञप्तिपत्र में नहीं है, लेकिन इनके चचेरे भाई षेतसी व नेतसी पुत्र शाह वेमन के नाम उसमें है।६९ इन लोगों ने भी पटना में मूर्ति-प्रतिष्ठा की थी। अहमदाबाद के एक लेख से पता चलता है कि इनके पुत्र रूपचंद की तीन स्त्रियाँ रूपश्री, कोभा तथा केसर अपने पति की मृत्यु पर १६१५ ई. में सती (सागमन-सहगमन) हो गई थी।
उपर्युक्त तथ्यों से कुछ बातों पर प्रकाश पड़ता है
(१) कुंवरपाल सोनपाल एक धनी जैन व्यापारी थे इनको संघाधिपति की महान् उपाधि मिली थी।
(२) इन्होंने आगरा, लखनऊ, मिर्जापुर, पटना तथा गुजरात आदि राज्यों की व्यापारिक एवं धार्मिक यात्राएँ की थीं। आगरा-निवासी होकर व्यापार हेतु पटना जा बसे थे। ६३. 'भानुचन्दणिवरित' प्रस्तावना, पृ. २२ । ६४. यह एक प्रकार का विश्राम गृह होता है जिसमें जैन यात्री विश्राम करते थे । ६५. 'कुंवरपाल सोनपाल प्रशस्ति', पृ० २८ । ६६. वही, पृ. २८ । ६७. पूरनचन्द नाहर, जैन लेख संग्रह, प्रथम भाग (कलकत्ता, १९१८), लेखांक ४३३ । ६८. वही, लेखांक ३०७, ३०८, ३०९ । ६९. प्राचीन विज्ञप्तिपत्र पृ. २५ । ७०. जैन लेख संग्रह, प्रथम भाग, लेखांक ३१०, ११ । ७१. अगरचन्द नाहटा, सती प्रथा और ओसवाल समाज ओसवाल नवयुवक (सितम्बर १९३७)
पृ. २८४ ।
परिसंवाद-४
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