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सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरप्रदेश के कतिपय
विशिष्ट जैन व्यापारी
डॉ. उमानाथ श्रीवास्तव जैन समाज के सदस्यों द्वारा धार्मिक-मान्यता 'अहिंसा परमो धर्मः' के सिद्धान्त का पालन व्यापार के क्षेत्र में भी किया जाता रहा है । ये लोग कुछ उसी प्रकार का व्यापार अथवा व्यवसाय करते हैं, जिसमें हिंसा न हो । अतः लकड़ी काटने, मछली मारने या उससे सम्बन्धित व्यवसाय, शहद (मधु) का व्यापार, खेती करना आदि इनके हेतु वर्जित हैं, क्योंकि इनसे जीव-हिंसा होने की संभावना बनी रहती है। इसलिए ये कुछ खास प्रकार के ही व्यापार अथवा व्यवसाय करते हैं।
सत्रहवीं शताब्दी का समय भारतवर्ष के व्यापारिक इतिहास में चरमोत्कर्ष का काल था। उस समय मुगल साम्राज्य का राजनीतिक विस्तार काबुल से बंगाल की खाड़ी तक तथा कश्मीर से सुदूर दक्षिण तक हो गया था । महान् मुगल-सम्राट अकबर ने राजनीतिक स्थिरता के साथ ही जीवन तथा सम्पत्ति की सुरक्षा भी प्रदान की तथा भारतीय व्यापार और व्यवसाय को उन्नति प्रदान करने के लिए समुचित वातावरण का निर्माण भी किया था। ऐसे उपयुक्त समय में भारतवर्ष के जैनों, विशेषकर गुजराती तथा राजस्थानी जैनों ने इस अवसर का लाभ उठाकर व्यापारिक प्रगति की।
मुगलवंश के संस्थापक बाबर ने आगरा (उ० प्र०) को अपनी राजधानी बनाया था । उसे शासन-व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए पर्याप्त अवसर नहीं मिला, इसी प्रकार हुमायूं का भी पूरा जीवन अपने शत्रुओं के विरुद्ध युद्ध करने में ही समाप्त हो गया। अतः राजधानी आगरा की व्यापारिक एवं राजनीतिक उन्नति नहीं हो सकी। महान मुगल सम्राट अकबर ने आगरा को विशाल भवनों आदि से सुसज्जित कर एक महत्त्वपूर्ण स्थान का दर्जा प्रदान किया। राजधानी होने के कारण आगरा को व्यापारिक प्रधानता भी मिली । देश भर के महत्त्वाकांक्षी व्यापारी और व्यवसायी
१. डॉ. सुरेन्द्रगोपाल 'सत्रहवीं सताब्दी में बिहार में जैन' प्रोसीडिंग्स भारतीय इतिहास ____कांग्रेस का तैतीसवाँ अधिवेशन (१९७२) पृ० ३२० । २. वही, पृ० ३२० ।
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