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जैन शास्त्रों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक तत्वों का मानववैज्ञानिक अध्ययन
है। यह ज्ञातृ का ही अपभ्रंश-परिवर्तित नामकरण है। महावीर के अनुयायियों को श्रावक कहा गया है। बिहार के मानभूम, सिंहभूम आदि जिलों में सराक जाति अब भी पायी जाती है। वह अपने को महावीर की परम्परा का मानती है। समाजशास्त्रीय दृष्टि से इन जातियों का अध्ययन महत्त्वपूर्ण हो सकता है। भारत के अन्य प्रदेशों में स्थित जैन धर्मानुयायियों का अध्ययन विभिन्न दृष्टियों से अपेक्षित है।
३.०३ महावीर ने स्वयं अपने पूर्व की किस परम्परा को अपनाया, इस विषय में भी गवेषणा हुई है। महावीर के माता-पिता पार्श्व के अनुयायी थे। पार्श्व के अनुयायी पार्वापत्य कहलाते थे। मगध में पापित्यों के मोहल्ले के मोहल्ले मौजूद थे।
३.०४ पार्श्व से और पूर्व सिन्धुघाटी की सभ्यता तक पुरातात्त्विक अनुसन्धानों ने इस परम्परा का सूत्र जोड़ दिया है। इससे इस परम्परा के मानव-वैज्ञानिक अध्ययन की सम्भावनाएँ बनी हैं।
३.०५ महावीर 'जिन' माने जाते थे। इसलिए उनके अनुयायी कालान्तर में जैन कहलाए और उनके धर्म को जिनधर्म या जैन धर्म कहा गया। इन्हीं अर्थों में उनकी परम्परा के शास्त्रों को जैन शास्त्र कहा जा सकता है या कहा जाना चाहिए। वास्तव में प्राचीन भारतीय साहित्य के वैदिक, जैन, बौद्ध जैसे वर्गीकरण कालान्तर में अवैज्ञानिक सिद्ध होंगे, ऐसी हमारी धारणा है ।
३.०६ जैन परम्परा के जो प्राचीन शास्त्र उपलब्ध हैं, वे विभिन्न प्रकार की प्राकृतों, संस्कृत, अपभ्रंश तथा विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं-प्राचीन कन्नड़, प्राचीन तमिल, जूनी गुजराती, पुरानी राजस्थानी आदि में उपलब्ध हैं। यह अकारण नहीं है। इसका ऐतिहासिक और शास्त्रीय आधार है। महावीर ने जन भाषा में उपदेश दिये थे जिसे अर्धमागधी कहा गया है। जैन शास्त्रों में कहा गया है कि हमारा वास्तविक प्रयोजन तात्पर्य समझाने से है, शब्दों से मोह या उनके प्रति आग्रह नहीं है। इसीलिए यह भी कहा गया कि भगवान् तो अर्थ का उपदेश देते हैं, उनके शिष्य उन्हें शब्दों में ग्रथित करते हैं—'अत्थं भासइ भगवा ।'
यही कारण है कि महावीर के शिष्य जिस क्षेत्र-प्रदेश में गये, वहाँ की भाषा में महावीर के उपदेशों को जन-मानस तक पहुँचाया, उसी में शास्त्रों की रचना की। यह एक बहुत बड़ा भेदक तत्त्व है जो जैन परम्परा को वैदिक या श्रौत-स्मार्त परम्परा से अलग करता है।
परिसंवाद-४
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