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जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन सामयिक थे । धनेश्वरसूरि के प्रभाव से शिलादित्य ने जैनधर्म अंगीकार किया और उन्हीं की प्रेरणा से उसने बौद्धों को अपने राज्य से निष्कासित किया तथा तीर्थस्थानों पर अनेक जैन चैत्य स्थापित कराये । महूदी, लिलवादेव, वसन्तगढ़ और वलभी से प्राप्त कांस्य जैनमूर्तियों तथा ढांक की गुफा मूर्तियों से भी इस काल में जैनधर्म के प्रभावकारी होने का संकेत मिलता है | "
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नान्दीपुरी के गुर्जर राजाओं के शासनकाल में जैनधर्म ने पर्याप्त प्रतिष्ठा अर्जित की। जयभट प्रथम और दद्द द्वितीय ने 'वीतराग' और 'प्रशान्तराग' जैसे विरुद धारण किये | २० चूँकि ये विरुद जैन परम्परा के हैं अतः इन राजाओं पर जैनधर्म का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । यह भी संभव है कि इन शासकों को ये विरुद जैन धर्मावलम्बियों द्वारा प्रदान किये गये हों क्योंकि इनका अपना धर्म सौर्य धर्म था | २१ ईसा की छठी सातवीं शताब्दी की अकोटा की कुछ कांस्य जैन मूर्तियाँ भी जैनधर्म की उन्नत अवस्था की प्रतीक हैं । २२
गुजरात के चालुक्यों के शासनकाल में जैनधर्म के सम्बन्ध में कोई सूचना नहीं प्राप्त होती है लेकिन कर्नाटक में जैनधर्म काफी प्रभावशाली था तथा चालुक्य नरेश विनयादित्य, विजयादित्य और विक्रमादित्य द्वितीय द्वारा इसे पर्याप्त प्रश्रय मिला | २३ राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष प्रथम, कृष्ण द्वितीय, इन्द्र तृतीय और इन्द्र चतुर्थ द्वारा जैनधर्म को समुचित प्रोत्साहन प्राप्त हुआ । वस्तुतः अमोघवर्ष हिन्दू की अपेक्षा जैन अधिक था । उसने आचार्य जिनसेन को अपना धर्मगुरु स्वीकार किया था । वह उनका इतना आदर करता था कि उनके स्मरण मात्र से ही वह अपने को कृत्य कृत्य समझता था । अनेक राष्ट्रकूट सामन्तशासक तथा अधिकारीगण भी जैनधर्मावलम्बी थे । २४ सन् ८२१ ई. के एक शिलालेख में नवसारी में अवस्थित मूलसंघ की सेनसंघ शाखा, चैत्यलायतन और वसहिका का उल्लेख है । मूलसंघ दिगम्बर जैनसंघ की मूलशाखा है और सेनसंघ उसकी प्रशाखा । २६ ऐसा प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र में दिगम्बर जैनधर्म अधिक प्रभावशाली था । इस काल की अकोटा की अनेक कांस्य जैन मूर्तियों से यहाँ श्वेताम्बर जैनधर्म का भी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है ।
गुर्जर प्रतीहार शासक जैनधर्म के प्रति उदार थे । प्रभावक चरित के अंतर्गत बप्पभट्टि चरित में नागावलोग (नागभट द्वितीय) के जैनधर्म अंगीकार करने का उल्लेख है । उसमें यह भी उल्लेख है कि उसने मोदेरा और अणहिलपुर में जैनमन्दिरों का निर्माण कराया और शत्रुंजय एवं गिरनार की तीर्थयात्रा की । २८ इस काल में
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