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जैन कला का अवदान
बहुपुत्रिका यक्षी की सर्वाधिक चर्चा है । जिनों से संश्लिष्ट प्राचीनतम यक्ष-यक्षी युगल सर्वानुभूति (या कुबेर) और अम्बिका की कल्पना प्राचीन परम्परा के मणिभद्रपूर्णभद्र यक्षों और बहुपुत्रिका यक्षी से प्रभावित है । लगभग छठीं शती ई. में जिनों के शासन और उपासक देवों के रूप में मूर्तियों में यक्ष-यक्षी युगलों का निरूपण प्रारंभ हुआ, जिसका प्रारंभिकतम उदाहरण (छठीं शती ई.) अकोटा से मिला है । यक्ष और क्षियों का अंकन जिन मूर्तियों के सिंहासन या पीठिका के दाहिने और बायें छोरों
पर किया गया है ।
लगभग छठीं से नवीं शती ई० तक के ग्रंथों में केवल यक्षराज ( सर्वानुभूति), धरणेन्द्र, चक्रेश्वरी, अंबिका एवं पद्मावती की ही कुछ लाक्षणिक विशेषताओं के उल्लेख हैं । २४ जिनों के स्वतंत्र यक्ष-यक्षी युगलों की सूची लगभग आठवीं-नवीं शती ई. में निर्धारित हुई । सबसे प्रारम्भ की सूचियां कहावली, तिलोय पण्णत्त और प्रवचनसारोद्धार में हैं । *४ २४ यक्ष-यक्षी युगलों की स्वतंत्र लाक्षणिक विशेषताएं ग्यारहवीं-बारहवीं शती ई. में नियत हुई, जिनके उल्लेख निर्वाणकलिका, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, प्रतिष्ठासार संग्रह, प्रतिष्ठासा रोद्धार, आचारदिनकर, प्रतिष्ठातिलकम् एवं अन्य शिल्पशास्त्रों में हैं । श्वेतांबर ग्रंथों में दिगंबर परंपरा के कुछ पूर्व ही यक्ष और यक्षियों की लाक्षणिक विशेषताएं निश्चित हो गयी थीं। दोनों परंपराओं यक्ष एवं यक्षियों के नामों और लाक्षणिक विशेषताओं की दृष्टि से पर्याप्त भिन्नता दृष्टिगत होती है । दिगंबर ग्रंथों में यक्ष और यक्षियों के नाम और उनकी लाक्षणिक विशेषताएं श्वेतांबर ग्रंथों की अपेक्षा स्थिर और एकरूप हैं ।
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दोनों परंपराओं की सूचियों में मातंग, यक्षेश्वर एवं ईश्वर यक्षों तथा नरदत्ता, मानवी, अच्युता एवं कुछ अन्य यक्षियों के नामोल्लेख एक से अधिक जिनों के साथ किये गये हैं । भृकुटि का यक्ष और यक्षी दोनों के रूप में उल्लेख है । २४ यक्ष और यक्षियों की सूची में से अधिकांश के नाम एवं उनकी लाक्षणिक विशेषताएँ हिन्दू और कुछ उदाहरणों में बौद्ध देवकुल से प्रभावित हैं । जैनधर्म में हिन्दू देवकुल के विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, स्कन्द कार्तिकेय, काली, गौरी, सरस्वती, चामुण्डा, और बौद्ध देवकुल की तारा, वज्रशृंखला, वज्रतारा एवं वज्रांकुशी के नामों और लाक्षणिक विशेषताओं को ग्रहण किया गया । जैन देवकुल पर ब्राह्मण और बौद्ध धर्मों के देवों का प्रभाव दो प्रकार का है । प्रथम, जैनों ने इतर धर्मों के देवों के केवल नाम ग्रहण किये और स्वयं उनकी स्वतंत्र लाक्षणिक विशेषताएँ निर्धारित की । गरुड़, वरुण, कुमार यक्षों और गौरी, काली, महाकाली, अम्बिका एवं पद्मावती यक्षियों के संदर्भ
परिसंवाद - ४
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