________________
जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन में चार जिन मूर्तियों के निरूपण का उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। ऐसी स्थिति में कुषाणकालीन जिन चौमुखी में चार अलग-अलग जिनों के उत्कीर्णन को समवसरण की धारणा से प्रभावित और उसमें हुए किसी विकास का सूचक नहीं माना जा सकता । आठवीं-नवीं शती ई. के ग्रन्थों में भी समवसरण में किसी एक ही जिन की चार मूर्तियों के निरूपण का उल्लेख है जब कि कुषाणकालीन चौमुखी में चार अलगअलग जिनों को चित्रित किया गया है। मथुरा की १०२३ ई. की एक चौमुखी मूर्ति में ही सर्वप्रथम समवसरण की धारणा को अभिव्यक्ति मिली। पीटिका लेख में भी उल्लेख है कि यह महावीर की जिन चौमुखी है। समवसरण में जिन सदैव ध्दानमुद्रा में आसीन होते हैं, जब कि कुषाणकालीन चौमुखी मूर्तियों में जिन सदैव कायोत्सर्ग में खड़े हैं। जहाँ हमें समकालीन जैन ग्रंथों में जिन चौमुखी मूर्ति की कल्पना का निश्चित आधार नहीं प्राप्त होता है, वहीं तत्कालीन एवं पूर्ववर्ती शिल्प में ऐसे एक मुख और बहुमुखी शिवलिंग एवं यक्ष-मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं, जिनसे जिन चौमुखी की धारणा के प्रभावित होने की सम्भावना हो सकती है। जिन चौमुखी पर स्वस्तिक और मौर्य शासक अशोक के सिंह एवं वृषभ स्तम्भ-शीर्षों का भी प्रभाव असम्भव नहीं है ।७२
चौमुखी जिन मूर्तियों को मुख्यतः दो वर्गों में बाँटा जा सकता है। पहले वर्ग में ऐसी मूर्तियाँ हैं, जिनमें एक ही जिन की चार मूर्तियाँ बनी हैं। दूसरे वर्ग की मूर्तियों में चारों ओर चार अलग-अलग जिनों की मूर्तियाँ हैं। पहले वर्ग की मूर्तियों का उत्कीर्णन लगभग सातवीं-आठवीं शती ई. में प्रारम्भ हुआ । किन्तु दूसरे वर्ग की मूर्तियाँ पहली शती ई. से ही बनने लगीं। मथुरा की कुषाणकालीन चौमुखी मूर्तियाँ इसी कोटि की हैं। पहले वर्ग की मूर्तियाँ तुलनात्मक दृष्टि से संख्या में बहुत कम हैं, और इनमें जिनों के लांछन सामान्यतः नहीं प्रदर्शित हैं । मथुरा की कुषाणकालीन चौमुखी मूर्तियों के समान ही दूसरे वर्ग की मूर्तियों में अधिकांशतः केवल वृषभनाथ और पार्श्वनाथ की ही पहचान सम्भव है । कुछ मूर्तियों में अजितनाथ, सम्भवनाथ, सुपार्श्वनाथ, चंद्रप्रभ, शांतिनाथ, नेमिनाथ एवं महावीर की भी मूर्तियाँ बनी हैं। बंगाल में चारों जिनों के साथ अलग-अलग लांछनों, और देवगढ़ तथा विमलवसही में यक्ष-यक्षी युगलों का चित्रण प्राप्त होता है। लगभग दशवीं शती ई. में चतुर्विंशति जिन-पट्टों का निर्माण प्रारम्भ हुआ। ग्यारहवीं शती ई. का एक विशिष्ट चतुर्विंशति जिन-पट्ट देवगढ़ के साहू जैन संग्रहालय में है। इसमें जिनों के साथ अष्टप्रातिहार्यों, लांछनों एवं यक्ष-यक्षी युगलों का चित्रण हुआ है।
___ भगवतोसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र, अन्तगडदसाओ एवं पउमचरियं जैसे प्रारम्भिक जैन ग्रंथों में यक्षों के प्रचुर उल्लेख हैं ।४३ इनमें मणिभद्र और पूर्णभद्र यक्षों और परिसंवाद-४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org