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जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन दिया जाता है वैसे ही हत्या के प्रयत्न में लीन किन्तु हत्या में असफल व्यक्ति हिंसा के पूर्ण पाप को प्राप्त नहीं करता है।
जैनधर्म एवं बौद्धधर्म में भेद का प्रमुख आधार आत्मा सम्बन्धी मान्यता है । जैनधर्म में आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व माना गया है तथा उसकी मुक्ति का उपाय भी प्रतिपादित है। किन्तु बौद्धधर्म में आत्मा की चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। बौद्ध, दर्शन के ग्रन्थों में तो आत्मा के अस्तित्व का विभिन्न तर्कों के आधार पर खण्डन भी उपलब्ध होता है। इससे जैनधर्म एवं बौद्धधर्म के परस्पर विरोधी होने का आभास मिलता है। किन्तु यदि आत्मा सम्बन्धी भगवान् बुद्ध के विचारों पर ध्यान दें तो एतद् विषयक विरोध सरलता से दूर हो जाता है।
भगवान् बुद्ध ने अपने उपदेशों में कहीं भी आत्मा के अस्तित्व का खण्डन नहीं किया है । जब उन्होंने देखा कि आत्मा के सिद्धान्त की ओट लेकर वैदिक संस्कृति में नाना अनर्थ हो रहे हैं। भोग की प्राप्ति के लिए हिंसा तथा शोषण बढ़ता जा रहा है तथा कुछ लोग अपने भौतिक स्वार्थ के वशीभूत होकर 'वैदिकी हिंसा हिसा न भवति का नारा बुलन्द कर रहे हैं। एक अदृश्य सत्ता के लिए आदमी इतना पागल हो गया है कि उसकी दृष्टि में दूसरे प्राणियों का कुछ भी महत्त्व नहीं रहा है । क्रियाकाण्ड का इतना अधिक बोलबाला हो गया कि हजारों निरीह मूक पशुओं की यज्ञ में आहुति दे देना एक अच्छा कार्य माना जाने लगा तब उन्होंने जनसाधारण का ध्यान आत्मा के सिद्धान्त से उत्पन्न पागलपन से हटाने के लिए व्यावहारिक सदाचरण की आवाज उठायी । जब बुद्ध से पूछा जाता था कि 'आप कहते हैं मनुष्य दुःख भोगता है, मनुष्य मुक्त होता है तो आखिर यह दुख भोगने वाला तथा दुःख से मुक्त होने वाला कौन है ? तो बुद्ध इसका उत्तर देते हुए कहते थे कि तुम्हारा यह प्रश्न ही गलत है । प्रश्न यों होना चाहिए कि क्या होने से दुःख होता है और उसका उत्तर यह है कि तृष्णा के होने से दूःख होता है। इसी प्रकार तृष्णा किसे होती है ? यह प्रश्न न होकर क्या होने से तृष्णा होती है, यह प्रश्न होना चाहिए; तथा इसका उत्तर है कि वेदना होने से तृष्णा होती है । आदि । किन्तु इसके साथ ही साथ उन्होंने अपने उपदेशों में इस बात का सदैव संकेत किया कि वे अजन्मा अनश्वर सत्ता को भी मानते हैं । इतना अवश्य था कि उन्होंने लोक-कल्याण के लिए आत्मा के अस्तित्व का विवेचन उचित न समझ उसे अव्याकृत कोटि में डाल दिया था।
भगवान् बुद्ध के आत्मा विषयक मत पर यदि सुलझी दृष्टि से विचार किया जाय तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उन्होंने आत्मा का खण्डन न कर उसके व्यावहारिक पक्ष पर जोर दिया था। परिसंवाद-४
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