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जैन एवं बौद्धधर्म
मोक्ष एक अन्य ऐसा विषय है जिससे दोनों धर्मों में मतभेद प्रतीत होता है। जैनधर्म में मोक्ष का विशद वर्णन है, किन्तु बौद्धधर्म के अनुसार विज्ञान की सन्तति का निरुद्ध हो जाना निर्वाण है। इसी को परवर्ती बौद्ध साहित्य में प्रदीप के बुझ जाने की उपमा दी गयी है। किन्तु दोनों ही धर्मों में मुक्तावस्था या निर्वाणावस्था की प्राप्ति अभीष्ट है । गम्भीरतापूर्वक विचारने पर मोक्ष तथा निर्वाण में भी कोई विरोध नज़र नहीं आता है। बौद्धधर्म की विज्ञान-सन्तति अविद्या एवं संस्कार जन्य होने से संसार में विद्यमान रहती है तथा निर्वाण में इस विज्ञान-सन्तति का पूर्णरूपेण विनाश हो जाता है। जैनधर्म में भी निर्वाणावस्था में आत्मा के कर्मजन्य कलुषित रूप की समाप्ति अभीष्ट है। अतः कर्मबन्ध को तथा विज्ञान-सन्तति को पर्याय मानने से दोनों ही धर्मों में निर्वाण एक जैसा ही है । जहाँ तक आत्मा के शुद्ध रूप की बात है भगवान् बुद्ध उसे तो अव्याकृत कोटि में डाल ही चुके थे। - जैनधर्म में मोक्ष का मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र-इन तीनों का एक साथ होना माना गया है। बौद्धधर्म में भी श्रेष्ठ अष्टांगिक मार्ग को मोक्ष का मार्ग कहा गया है । इस अष्टांगिक मार्ग को शील (सम्यग्वाचा, सम्यक्कन्ति एवं सम्यग्-आजीविका), समाधि (सम्यग्व्यायाम, सम्यक्स्मृति एवं सम्यक्समाधि), तथा प्रज्ञा में (सम्यग्दृष्टि एवं सम्यक्संकल्प) में विभक्त किया गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक चारित्र बौद्धधर्म के प्रज्ञा, समाधि एवं शील के अनुरूप हैं। इतना अन्तर अवश्य है कि जहाँ जैनधर्म में मोक्षमार्ग का मूल आधार सम्यग्दर्शन को माना गया है वहीं बौद्धधर्म में शील को प्रथम स्थान दिया गया है तथा शील को ही मोक्ष मार्ग का आधार माना गया है। इसका मुख्य कारण जनसाधारण का ध्यान आत्मा के ऊहापोह से हटाकर सदाचार की ओर आकर्षित करना था।
__ सारांश यह कि जैनधर्म एवं बौद्धधर्म न केवल श्रमण संस्कृति की दो धाराएँ हैं, अपितु आपस में एक-दूसरे की पूरक भी हैं । जो व्यक्ति आत्मा के नाम पर होने वाले अनाचार से खिन्न होकर आत्मा के अस्तित्व की उपेक्षा कर संसार के दुःखों से शान्ति चाहता है उसे बौद्धधर्म का सहारा लेना चाहिए, किन्तु जो व्यक्ति आत्मा के अस्तित्व पर श्रद्धा रखकर संसार के दुःखों से मुक्ति चाहता है, उसे जैनधर्म में बताया गया मोक्षमार्ग अनुकूल होगा ।
पालि एवं बौद्ध अध्ययन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, उत्तर प्रदेश ।
परिसंवाद-४
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