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भारतीय विचारधारा और जैन दृष्टि
___ श्री राधेश्यामधर द्विवेदी विचार जीवन के घात-प्रतिघातों में बनाये जाते हैं और वे सही तभी माने जाते हैं जब उन विचारों से किसी विरोध की सम्भावना नहीं होती है। यद्यपि कालान्तर में वह सम्प्रदाय का स्वरूप लेकर एक पक्ष बन जाता है तब वह भी सम्यक् विचार है, इसमें सन्देह पैदा होता है। पर इस सबके बावजूद विचार की स्वतन्त्रता मनुष्य-मात्र का धर्म है और निष्पक्ष दृष्टि से यदि वह विचारता है तो किसी सर्वसम्मत अवधारणा पर पहुँच सकता है और वह अवधारणा जैन-विचारों के करीब आती है । इस आधार पर ही जैन-विचारों का मूल्यांकन करना मेरा उद्देश्य है।
आज भगवान् बुद्ध या महावीर की भाँति घर से संन्यास लेकर सत्यान्वेषण के लिए हम जंगल में नहीं जाना चाहते हैं और यदि जाते भी हैं तो उस एकान्त अनुभव को सत्य मानने के लिए बाध्य नहीं हैं। आज अनुभवों तथा आचारों का विश्लेषण समाज के मध्य में रहकर करना होगा और उसी परख पर यदि पूर्व के चिन्तन सहायता करते हैं तो उनको माना जा सकता है वरना विवेचन मात्र वाचिक अन्धविश्वास कहलाएगा। इसी आधार पर लगता है कि प्राचीन भारतीय विचारों का संघर्ष जो छठी शती ई. पू. में प्रारम्भ हुआ, उसमें जैन दर्शन ने परस्पर के अति संघर्षपूर्ण विचारों को शान्तपथ पर लाने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। और इसी शान्तिमार्ग का पथिक होने के कारण वह अपने को समाज में बनाए तो रख सका, पर सम्पूर्ण समाज पर छा नहीं सका। प्रभाव के विस्तार से यदि व्यक्ति का या विचार का मूल्यांकन किया जाता है तब तो यह उतना प्रभावोत्पादक नहीं कहा जा सकता है, पर यदि सम्यक् दृष्टि के द्वारा आनुभविक सत्य के विश्लेषण का प्रश्न खड़ा किया जाता है तब तो यह निश्चय ही प्रभावोत्पादक कहा जा सकता है । यह दूसरी बात है कि मनुष्य सत्य समझ कर भी उसको करने में संकोच करता है क्योंकि समाज-व्यवस्था उसको स्वीकार नहीं करती और बेचारा मनुष्य सबको बदलने में पूर्ण समर्थ नहीं है इस सन्दर्भ में व्यक्ति के विचारों की भी सीमा खड़ी हुई है। वह समाज को सर्वथा लाँघकर कुछ भी नहीं कर सकता । अतएव व्यक्ति का दर्शन जब नये दर्शन के रूप में खड़ा होता है तो उसका व्यवहार, तत्त्व एवं ज्ञान का विवेचन
परिसंवाद ४
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