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जैन एवं बौद्धधर्म
डॉ. कोमलचन्द्र जैन श्रमण संस्कृति की दो प्रमुख धाराएँ आज भी भारतीय संस्कृति में अपने प्रभावशाली अस्तित्व के साथ प्रवाहित हैं। उनमें से एक धारा जैनधर्म के रूप में तथा दूसरी धारा बौद्धधर्म के रूप में पाँच व्रतों तथा पाँच शीलों का उपदेश जनकल्याण के लिए दे रही है।
जैनधर्म एवं बौद्धधर्म में अनेक समानताएँ है। इन्हीं समानताओं के आधार पर प्रो. लासेन आदि विद्वानों ने बुद्ध एवं महावीर को एक ही व्यक्ति बता दिया । कुछ समय बाद प्रो. वेबर ने यह खोज की कि महावीर एवं बुद्ध दो अलग-अलग व्यक्ति थे, किन्तु जैनधर्म बौद्धधर्म की एक शाखा मात्र है। इस खोज से जैनधर्म को पृथक् धर्म न मानकर कुछ दिनों तक बौद्धधर्म की शाखा मात्र माना गया । अन्त में प्रो. याकोबी ने उक्त मत का खण्डन करते हुए यह सिद्ध किया कि जैनधर्म बौद्धधर्म से पृथक् न केवल स्वतन्त्र धर्म है, अपितु वह बौद्धधर्म से प्राचीन भी है। बुद्ध के समकालीन महावीर तो जैनधर्म के अन्तिम तीर्थकर मात्र थे। उक्त मतों से जहाँ यह सिद्ध होता है कि जैनधर्म एक स्वतन्त्र एवं बौद्धधर्म से प्राचीन धर्म है, वहीं यह भी प्रमाणित होता है कि इन दोनों धर्मों में अनेक समानताएँ हैं, अन्यथा प्रो. लासेन एवं प्रो. वेबर को एकत्व का भ्रम न होता ।
अब प्रश्न यह है कि वे कौन-सी समानताएँ हैं जिनके आधार पर कुछ विद्वानों को भगवान् महावीर एवं भगवान् बुद्ध में एकत्व का भान हुआ तथा कुछ को जैनधर्म बौद्धधर्म की शाखा मात्र प्रतीत हुआ। इसमें सन्देह नहीं कि यदि उन समानताओं को दृष्टि में रखकर यदि दोनों धर्मों का अध्ययन किया जाए तो श्रमण संस्कृति का एक सुन्दर रूप उपस्थित हो सकता है। दुर्भाग्यवश इन दोनों धर्मों में निहित असमानताओं को महत्त्व देते हुए उन धर्मों का अध्ययन किया जाता है। फलस्वरूप ये दोनों धर्म न केवल एक-दूसरे से असम्बद्ध प्रतीत होते हैं, अपितु विरोधी भी लगते हैं। इन दोनों धर्मों का जो व्याख्यापरक साहित्य है उसमें असमानता को ही प्रमुख आधार बनाकर एक दुसरे का खण्डन किया गया है। परिणाम स्वरूप जब जैनधर्म एवं बौद्धधर्म से अनभिज्ञ कोई जिज्ञासु पाठक दोनों धर्मों के व्याख्यापरक साहित्य को पढ़ता है तो वह यही निष्कर्ष निकालने के लिए विवश हो जाता है कि ये दोनों धर्म न केवल एक दूसरे के प्रतिकूल हैं अपितु भगवान् महावीर एवं भगवान् बुद्ध स्वयं सैद्धान्तिक मतभेद रखते थे। और जब इस प्रकार के निष्कर्ष प्रकाशित किये जाते हैं तो उससे श्रमण संस्कृति की छवि धूमिल ही होती है। परिसंवाद-४
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