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समन्वय की साधना और जैन संस्कृति की पद्धति तथा अनेक पक्षों के समन्वय की दृष्टि है, किन्तु उसके प्रत्येक पहलू पर सम्भावित समग्र दृष्टि बिन्दुओं से एकमात्र समन्वय में ही विचार की परिपूर्णता मानने का दृढ़ आग्रह जैन-परम्परा की अपनी विशेषता है। इसलिए स्याद्वाद को विश्व विजेता निष्कंटक राजा कहा गया है-' एवं विजयिनि निष्कंटके स्याद्वादमहानरेन्द्र ।' यों ऋग्वेद का वचन ‘एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति' (१।१६४।४६) वस्तुतः समन्वयकारी अनेकान्त का बीज-वाक्य है। जो भी हो, हमें मानना होगा कि जैन-दर्शन ने प्रमेय का स्वरूप उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य यानी विलक्षण परिणामवाद को मानकर तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में एक विशिष्ट समन्वयवाद उपस्थित किया है। यही नहीं आचार प्रधान जैन धर्म ने तत्त्वज्ञान का उपयोग भी आचारशुद्धि के लिए ही किया है। इसीलिए तर्क जैसे शुष्क शास्त्र का उपयोग भी जैनाचार्यों ने समन्वय के लिए किया है। दार्शनिक-संघर्ष एवं वाद-विवाद के युग में भी समता, उदारता और समन्वय-दृष्टि की जैन तार्किक परम्परा में अद्भुत अभिव्यक्ति मिलती है । हेमचन्द्र ने कहा है
भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागताः यस्य ।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै । हरिभद्र तो और भी अधिक प्रगल्भ दीखते हैं
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु ।
युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ असत् में जब वस्तुस्थिति की अनन्तधर्मात्मकता मानवीय ज्ञान की दुःखद सीमायें, शब्द का अत्यल्प सामर्थ, तथा अभिप्राय की विविधता का जब विचार करते हैं तो उसका निरूपण करना कोई सामान्य कार्य नहीं। इसीलिए जेनों ने आचार में अहिंसा, विचार में अनेकान्त, वाणी में स्याद्वाद तथा समाज में अपरिग्रह, ये चार स्तम्भ माने जिन पर उनका सर्वोदयी भव्य प्रासाद खड़ा है। जैन दर्शन की भारतीय दर्शन को यही देन है कि इसने वस्तु के विराट स्वरूप को सापेक्ष दृष्टिकोणों से देखना सिखाया, सावधानी पूर्वक सापेक्ष भाव से बोलना सिखाया और हर जीव को जीने का समान अधिकार मान सब के साथ अहिंसा का व्यवहार करना सिखाया तथा समाज में समता के लिए अपरिग्रह बताया।
दर्शन विभाग, भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर, (विहार)
परिसंवाद-४
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