Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1911 Book 07
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference
View full book text
________________
३२]
જૈન કોન્ફરન્સ હેરલ્ડ.
[oन्युमारी.
___ भावार्थ:--मैने जो कुछ जीवोका अपराध किया हो उनको अपने भावसहित क्षमा कर मैभी उनको माफी देता हुं. अर्थात् मुझे किसीके साथ रोशभाव नही है.
हे प्रियपुत्र, अब तूं खुद विचार करना कि जैनी लोग ये गाथाओ केवल अपने मूखसे उच्चार करनाही सीखे है या इसपर कुछ उपयोग भी है ? जहां तक मे दृष्टि फैलाकर ( विचारकर ) देखती हुं इसका सार ग्रहण करनेवाले कोई विरले पुरुषही नजर आते हैं.
हे अंगज! पक्षपात करना यह तो आजकल कितनेक लोगोका स्वभाव पडगया है. देखा चाहे कितनाभी न्यायी राजा क्यों न हो, वह यही चाहेगा कि चाहे दूसरे गांव बरबाद क्यो न हो जाय, मगर मैरे नगरकी हमेशा तरक्की होती रहे.
हे वत्स , न मआलुम निसपक्षपाती पुरुष आजकल कहां चले गये.
हे भाई अब तो जमाना बहुत नाजुक आ गया परंतु दोसो वर्षके पहिले जो योगीराज श्री आनंदघनजी हुवे वेभी अपने बनाये हुवे श्री अभिनंद स्वामिक स्तवनमें फरमाते है:
मतमतभेदेरेजो जईपूछीये।
सहुथापे अहमेव-आभि || १ || तो इससे निश्चय हुवा कि योगिराजश्रीनेभी मतभेदमे कुछभी सार नही देखा. - हे भाई जादे कहनेमें कुछभी फायदा नहीं है सबब कि ( A word is enough to wise) अक्कलमंदको इशारा काफी होता है, वास्ते तू कमतीमें जादे समझ लेना. मै-हे मातेश्वरी, मै खूब समझगया अब आपभी अपने आसनपर बिराज जावें.
यह बात सुनकर वह चौथी माताभी अपने स्थानपर बैठ गई. तत्पश्चात् चारो माताओंका यथायोग्य सत्कार करके मैने उन्हे बिदाकी.