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अर्थ-चेतना १६५, भूस्वामित्व का हस्तान्तरण तथा विकेन्द्रीकरण १६७. सामन्ती ढाँचे के सन्दर्भ में श्रेणिगणप्रधान १६६, अग्रहार ग्रामों में शिल्पी आदि जातियों के पुनर्वास पर प्रतिबन्ध २०१, उद्योग-व्यवसायौं का आर्थिक ढाँचा २०२, वर्णव्यवस्था के आधार पर आर्थिक विभाजन २०२, कुल परम्परागत व्यवसाय चयन पर बल २०३, ब्राह्मण तथा पौरोहित्य व्यवसाय २०४, क्षत्रिय तथा सैन्य व्यवसाय २०६, वैश्य-शूद्र तथा वाणिज्य-कृषि आदि
व्यवसाय २०७। २. प्रमुख उद्योग व्यवसाय
२०६-२४१ कृषि २०६, सिंचाई के साधन २११, कृषि उपज, २११, ईख-उत्पादन : एक प्रमुख व्यवसाय २१२, बगीचों में उत्पन्न होने वाली शाक-मब्जियां २१२, वृक्ष उद्योग २१३, उद्यान व्यवसाय तथा बागवानी २१३, उद्यानों आदि में वृक्षारोपण २१४, वृक्ष-उद्योग का आर्थिक दृष्टि से महत्त्व २१५, फलों, मेवों, मसालों तथा सुगन्धित द्रव्यों के वृक्ष २१७, पुष्पवृक्ष एवं छायादार वृक्ष २१८, पशुपालन व्यवसाय २२१, पालतू पशु २२१, युद्धोपयोगी पशु २२१, मुर्गापालन २२२, वन्य पशुओं की व्यावसायिक उपयोगिता २२२, पशुपक्षियों से दुर्व्यवहार २२३, वाणिज्य व्यवसाय २२४, व्यापार का स्वरूप २२४, व्यापारिक काफिले २२५, नगर सेठों का आर्थिक वैभव २२६, विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध २२६, नगरों के बाजार २२७, विक्रयार्थ फुटकर वस्तुएं २२८, मुद्रा तथा क्रय शक्ति २२६, वस्तुनों में मिलावट तथा झूठे मापतौल का प्रयोग २३१, शिल्प व्यवसाय २३२, श्रेणि · व्यवसाय तथा अष्टादश श्रेणियां २३२, जीविकोपार्जन सम्बन्धी तकनीकी व्यवसाय २३३, पन्द्रह प्रकार के निषिद्ध व्यवसाय २३८, निष्कर्ष २३६ ।
पञ्चम अध्याय प्रावास-व्यवस्था, खानपान तथा वेशभूषा २४२-३१२ १. प्रावास व्यवस्था
२४२-२६४ विविध आवासीय संस्थितियां २४२, तीन प्रमुख प्रावासीय संचेतनाएं-ग्राम, नगर, निगम २४३, ग्राम २४४, ग्राम : आर्थिक उत्पादन के मुख्य केन्द्र २४४, नगर २४५, नगर जीवन : आर्थिक समृद्धि का परिणाम २४६, नगरों में भवन विन्यास २४८, नगरों के वास्तुशास्त्रीय चिह्न २४६, परिखा २४६, गोपुर २४६, वप्र २५०, प्राकार २५०, अटालक २५०, एक आदर्श नगर-प्रानर्तपुर का वास्तुशिल्प २५१, नगर चिह्न २५१, राजप्रासाद का वास्तुशास्त्रीय स्वरूप २५२, नगर के समीपस्थ क्षेत्रों में ग्रामादि निर्माण २५२, निगम २५३, जैन संस्कृत महाकाव्यों में निगम वर्णन २५२, राजधानी २५६, आकर २५७