________________ छठी ई० के पूर्वयुगीन एंव उत्तरयुगीन जैन साहित्य के अवलोकन से ऐसा ज्ञात होता है कि पूर्वयुगीन जैन साहित्य के सृजन कर्ताओं के सम्मुख मात्र धर्म एंव दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना प्रमुख उद्देश्य रहा। छठी ई० के बाद का जो जैन साहित्य है वह अपनी कतिपय विशेषताओं को लिए हुए है। इस युग की सबसे बड़ी विशेषता है-समन्वयवाद की प्रवृत्ति / इस प्रवृत्ति का प्रभाव विभिन्न क्षेत्रों में प्राप्त होता है। इतिहास लेखन की पूर्वयुगीन जैनेतर परम्पराओं से जैन इतिहास लेखन भी प्रभावित जान पड़ता है। हिन्दू परम्परा में इतिहास लेखन का श्री गणेश वैदिक साहित्य की वंशगोत्र प्रवर तालिकाओं में प्राप्त होता है। वैदिक साहित्य में संग्रहीत नाराशंसी गाथाओं का उल्लेख भी इतिहास के विकास को लक्षित करने वाला है। पुराण इतिहास लेखन के विकास की प्रक्रिया की सम्पुष्टि करते हैं। पुराणों में प्राचीन वंशों एंव वंशानुचरितों का उल्लेख मिलता है। कल्हण ने इतिहास को दो भागों में विभाजित किया है-पूर्वकालीन एंव अर्वाचीन / कल्हण के इस विभाजन से बहुत कुछ पूर्वमध्ययुगीन जैन पुराणकार प्रभावित से जान पड़ते हैं। जैन पुराणों में वेशठशलाका-पुरुषों के चरित्र निरुपण,परम्परागत जैन इतिहास एंव कथानकों के निवद्ध करने की चेष्टाऐं पूर्वमध्ययुग में की गयी हैं। जैन परम्परा का सम्पूर्ण साहित्य गौतमगणधर एंव श्रुतकेवलियों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। परिणामस्वरुप आप्त वचन के रुप में स्वीकृत किया गया है। जैन दार्शनिक मान्यताओं के अनुसार आप्तवचन सत्यशः होते हैं और इसी कारण जैनदर्शन में आप्त वचनों को प्रमाण रुप में स्वीकार किया गया है। जैन पुराणकार आचार्य जिनसेन द्वारा प्रस्तुत की गयी परिभाषा पर जैनेतर इतिहास लेखन की पद्धतियों का प्रभाव है। जैनदर्शन निवृत्तिमार्गी एंव समन्वयवादी प्रवृत्ति होने के कारण इस धर्म के ग्रन्थों में तत्कालीन सामाजिक एंव सांस्कृतिक इतिहास भी बहुलता के साथ प्रतिफलित हुआ है। पद्मचरित एंव बंरागवरित समाज एंव संस्कृति के अध्ययन की दृष्टि से बड़े ही महत्वपूर्ण है। जैन एंव जैनेतर परम्पराओं द्वारा ज्ञात होता है कि जैन इतिहास अत्यन्त प्राचीन है तथा इसके संस्थापक प्रथम तीर्थकर ऋषम देव हैं। यजुर्वेद में ऋषभदेव अजितनाथ एंव अरिष्टेनमि इन तीन तीर्थकारों के नामों का उल्लेख है। ऋग्वेद,अर्थवेद,मनुस्मृति,गोपथ ब्राह्मण एंव भागवत आदि ग्रंथों में भगवान ऋषभदेव के अनेक वर्णनों में उन्हें मूल प्रवर्तक के रुप में स्वीकार किया गया है। ऋग्वेद में दासों एंव दस्युओं के वर्णन के साथ पणि का भी उल्लेख मिलता हैं। ये पणि