Book Title: Jain Jyotirgranth Sangraha
Author(s): Kshamavijay
Publisher: Mulchand Bulakhidas Shah
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। जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे रत्नशेखरीया दिनशुद्धिः।
१९
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रविरिक्खा छब्बाला बारस तरुणा नव परे थेरा । थेरे न जाइ तरुणेहिं जाइ बाले भमइ पासे ।। ११० ॥ विसाहा-कित्तिआऽस्सेसा मूलऽद्दा भरणी महा । एयाहिं अहिणा दट्ठो कटेणावि न जीवइ ॥ १११ ॥३ पुण–पुस्स उ-फा उ-भ रोहिणीहिं रोगोवसम सत्तदिणे । मूलऽस्सिणि कित्ति नवमे सवण-भरणि-चित्त-सयभिसेगदसे ॥ ११२ ॥ धणिकर-विसाहिं पक्खे मह वीसइमे उ-खा मिगे मासे । अणुराह-रेवइ ६ चिरं तिपुव्व जिट्ठऽद्द-ऽस्सेस-साइ-मिइ ॥११३॥ चरलहुमिउमूले रोगनिन्नासहेऊ, हवइ खलु पउत्तं ओसहं वाहिआणं । भिगु-ससि पुणजिट्ठाऽस्सेस–साइ-महाहिं, न य कहवि विहेयं रोगमुत्ते सिणाणं ११४९ नामनक्खत्तमकिंदू एकनाडीगया जया । तया दिणे भवे मञ्चू नन्नहा जिणभासि ॥ ११५ ॥ आई अदा मिगं अंते मज्झे मूलं पइट्ठिअं। रविंदुजम्मनक्खत्तं तिविद्धो न हु जीवई ॥ ११६ ॥ धुवमिस्सुग्गन-१२
आइपुअमरविधवाविसिद्ध
पूरे
क्खत्ता मूलऽद्दा अणुराया । पंचगाई रवी भोमा मयको विवज्जिया १५ ॥ ११७ ॥ दो पणयालमुहुत्ते तीसमुहुत्तेगपुत्तलं काउं । नेरइअ दाहिणाए महापरिट्ठावणं कुजा ॥ ११८ ॥ तिन्नेव उत्तराई पुणव्वसु रोहिणी विसाहा य । एए छ नक्खत्ता पणयालमुहुत्तसंजोगा ॥ ११९ ॥१८ सयभिस-भरणी साई अस्सेस-जिट्ठऽद्द छच्च नक्खत्ता । पनरसमुहुत्तजोगा तीसमुहुत्ता पुणो सेसा ॥ १२० ॥ मास-दिण-रिक्खसुद्धिं मुणिऊणं सिद्धच्छायधुवलग्गे । बारंगुलम्मि सुद्धे दिक्खपइट्ठाइअं कुज्जा २१ ॥ १२१ ॥ हरिसयण अकम्मण अहिअमास गुरुसुक्कि अस्थि-सिसु-वुड्ढे । ससि नढे न पइट्ठा दिक्खा सुक्कऽत्थि वि न दुट्ठा ॥ १२२ ॥ अवजोगकुलिअभद्दा उक्काई जत्थ तं दिणं वजे । संकति साइदिणतिह गहणे २४ इगु आइ सग पच्छा ॥ १२३ ॥ सुद्धतिही सुहवारे सिद्धाऽमियराजजोगपमुहाइं । जत्थ हवंति सुहाई सुहकजे तं दिणं गिजं ॥ १२४ ॥२९
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