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स्त्रीमुक्ति का निषेध किया गया। सम्भवतः सबसे पहले जैनपरम्परा में स्त्रीमुक्ति-निषेध की अवधारणा का विकास दक्षिण भारत में दिगम्बर सम्प्रदाय द्वारा हुआ। क्योंकि सातवों-आठवीं शताब्दी तक उत्तर भारत के श्वेताम्बर आचार्य जहाँ सचेलता को लेकर विस्तार से चर्चा करते हैं वहाँ स्त्रीमुक्ति के पक्ष-विपक्ष में कोई भी चर्चा नहीं करते हैं। इसका तात्पर्य है कि उत्तर भारत के जैन सम्प्रदायों में लगभग सातवीं-आठवीं शताब्दी तक स्त्रीमुक्ति सम्बन्धी विवाद उत्पन्न ही नहीं हुआ था । इस सन्दर्भ में विस्तृत चर्चा पं० बेचरदास स्मृति ग्रन्थ में पं० दलसुखभाई, प्रो० ढाकी और मैंने अपने लेख में की है। यहाँ केवल हमारा प्रतिपाद्य इतना ही है कि स्त्रीमुक्ति का निषेध दक्षिण भारत में पहले और उत्तर भारत में बाद में प्रारम्भ हआ है, क्योंकि श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय के ग्रन्थों में लगभग आठवीं-नौवीं शताब्दी से स्त्री-मुक्ति के प्रश्न को विवाद के विषय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनपरम्परा में भी धर्मसाधना के क्षेत्र में स्त्री की समकक्षता किस प्रकार कम होती गयो । सर्वप्रथम तो स्त्री की मुक्ति की सम्भावना को अस्वीकार किया गया है फिर नग्नता को ही साधना का सर्वस्व मानकर उसे पाँच महाव्रतों के पालन करने के अयोग्य मान लिया गया और उसमें यथाख्यातचारित्र ( सच्चरित्रता की उच्चतम अवस्था ) को असम्भव बता दिया गया। सुत्तपाहुड में तो स्पष्ट रूप से स्त्री के लिए प्रव्रज्या का निषेध कर दिया गया। दिगम्बर परम्परा में स्त्री को जिन कारणों से प्रव्रज्या और मोक्ष के अयोग्य बताया गया है, वे निम्न हैं
(१) स्त्री को शरीर-रचना हो ऐसी है कि उससे रक्तस्राव होता है, उस पर बलात्कार सम्भव है अतः वह अचेल या नग्न नहीं रह सकती। चूंकि स्त्री अचेल या नग्न नहीं हो सकती, दूसरे शब्दों में वह पूर्ण परिग्रह
1. Aspects of Jainology Vo.. 2; Pt. Bechardas Doshi Comm
einoration Vol. page 150-110. २. इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर दृष्टिकोण के लिए देखिए-अभिधान राजेन्द्र
भाग २, पृ० ६१८-६२१ ( तथा ) इत्थीसु ण पावया भणिया--सूत्र-प्राभृत, पृ० २४-२६
एवं णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे होइ तित्थयरो ॥ --वही, २३
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