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चूर्णि में भी अनेक स्त्रियों के मुक्त होने का उल्लेख है । इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में आगमिक काल से लेकर वर्तमान तक स्त्री मुक्ति की अवधारणा को स्वीकार कर साधना के क्षेत्र में दोनों को समान स्थान दिया गया है । मात्र इतना ही नहीं यापनीय परम्परा के ग्रन्थ षट्खण्डागम और मूलाचार में भी जो कि दिगम्बरों में भी आगम रूप में मान्यता · प्राप्त है, स्त्री-पुरुष दोनों में क्रमशः आध्यात्मिक विकास की पूर्णता और मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार किया गया है ।" हमें आगमों और आगमिक व्याख्याओं यथा निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णि साहित्य में कहीं भी ऐसा संकेत नहीं मिलता है जिसमें स्त्री मुक्ति का गया हो अथवा किसी ऐसे जैन सम्प्रदाय की सूचना दी • स्त्रीमुक्ति को अस्वीकार करता है । सर्वप्रथम दक्षिण भारत में कुन्दकुन्द आदि कुछ दिगम्बर आचार्य लगभग पाँचवी-छठी शताब्दी में स्त्री-मुक्ति आदि का निषेध करते हैं । कुन्दकुन्द सुत्तपाहुड में कहते हैं कि स्त्री अचेल (नग्न) होकर धर्मसाधना नहीं कर सकती, और सचेल चाहे तीर्थंकर भी हो मुक्त नहीं हो सकता। इसका तात्पर्य यह भी है कि कुन्दकुन्द स्त्री तीर्थंकर की यापनीय ( मूलतः उत्तर भारतीय दिगम्बर संघ ) एवं श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित अवधारणा से परिचित थे । यह स्पष्ट है कि पहले स्त्री तीर्थंकर की अवधारणा बनी, फिर उसके विरोध में
( ब ) अन्तकृद्दशा के वर्ग ५ में १०, वर्गं ७ में १३, वर्ग ८ में १० । इस प्रकार कुल ३३ मुक्त नारियों का उल्लेख प्राप्त होता है ।
१. ( अ ) मणुस्सिणीसु मिच्छाइट्ठि सासणसम्माइट्टिट्ठाणे सिया पज्जत्तिअपज्जत्तियाओसंजदासंजद संजदट्ठाणे नियमा
याओ सिया
पज्जत्तियाओ ||
- षट्खण्डागम, १,१९२-९३ ( ब ) एवं विधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जावो । ते जंगपुज्जं किति सुहं च लद्धूण सिज्झति ॥
— मूलाचार ४।१९६
२. लिंग इत्थीणं हवदि भुजइ पिंडं सुएयकालम्मि | अज्जियत्रि एकवत्था वत्थावरणेण भुजेइ ॥ वि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो । विमोक्खमग्गो सेसा उमग्गया सव्वे ॥
निषेध किया गयी हो जो
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— सूत्रप्राभृत, २२, २३
( तथा ) सुणहाण गद्दहाण य गोपसुमहिलाणं दीसदे मोक्खो । जे सोधंति चउत्थं पिच्छिज्जंता जणेहि सव्वे हि ॥
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- शीलप्राभृत २९
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