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जैन देवकुल के विकास में हिन्दू तंत्र का अवदान
चौबीस यक्ष-यक्षियाँ
जैसा कि हम पूर्व में ही स्पष्ट कर चुके है जैन धर्म में चतुर्विध जैन संघ की रक्षा एवं उपासकों के भौतिक कल्याण के लिए तीर्थंकरों की शासन रक्षक यक्षियों के उपासना की पद्धति प्रारम्भ हुई। ये यक्षियाँ शासन देवता के रुप में जानी जाती हैं और अपने-अपने तीर्थंकरों के शासन की गरिमा एवं उनके चतुर्विध धर्मसंघ के रक्षण के साथ ही उपासक और उपासिकाओं के भौतिक कल्याण के दायित्व का भी निर्वहन करती हैं। जैन धर्म में शासन रक्षक देवता के रूप में यक्ष-यक्षियों की उपासना की अवधारणा का विकास हिन्दू धर्म में शक्ति-उपासना की अवधारणा के विकास के समानान्तर ही हुआ है और उस पर हिन्दू धर्म का स्पष्ट प्रभाव भी है। जिनसेन के हरिवंश पुराण (८वीं शती) के अन्तिम ६६वें अध्याय की प्रशस्ति में कहा गया है।
महोपसर्गे शरणं सुशान्तिकृत् सुशाकुनं शास्त्रमिदं जिनाश्रयम् । प्रशासनाः शासनदेवताश्च या जिनाँश्चतुर्विंशतिमाश्रिताः सदा ।।४३।। हिताः सतामप्रतिचक्रयान्विताः प्रयाचिताः सन्निहिता भवन्तु ताः। गृहीतचक्राप्रतिचक्रदेवता तथोर्जयन्तालयसिंहवाहिनी।। शिवाय यस्मिन्निह सन्निधीयते क तत्र विध्नाः प्रभवन्ति शासने।।४४ ।। ग्रहोरगा भूतपिशाचराक्षसा हितप्रवुत्तौ जनविघ्नकारिणः। जिनेशिनां शासनदेवतागण प्रभावशक्त्याथ शमं श्रयन्ति ते ।।४५।।
"चौबीस तीर्थंकरों के आश्रित जो शासन देवता हैं, वे जिन शासन की रक्षा करें। चक्र को धारण करने वाले अप्रतिचक्र देवता-चक्रेश्वरी और गिरनार पर्वत पर निवास करने वाली सिंहवाहिनी-अम्बिका, जिस जिन शासन के कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहती है, उस पर विघ्न अपना प्रभाव कैसे जमा सकते हैं? मनुष्य के मांगलिक कार्यों में विघ्न उत्पन्न करने वाले जो ग्रह, नाग, भूत, पिशाच और राक्षस आदि हैं वे भी शासन देवता की प्रभाव शक्ति से शांति को प्राप्त हो जाते हैं।'' आचार्य जिनसेन के उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन साधना में शासन-देवता की क्या भूमिका रही है। ऐतिहासिक दृष्टि से महाविद्याओं की अवधारणा से ही यक्षियों की अवधारणा का विकास हुआ है। यह हम पूर्व में ही बता चुके है कि जैनधर्म में स्वीकृत १६ महाविद्याएँ कालान्तर में २४ यक्षियों में किस प्रकार समाहित हो गईं। जैन धर्म में २४ यक्षों एवं २४ यक्षियों की अवधारणा किस प्रकार हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म से प्रभावित है, इस संबंध में डॉ० मारुतिनंदन तिवारी का निम्नतम कथन विशेष रूप से द्रष्टव्य है। वे पार्श्वनाथ विद्याश्रम से प्रकाशित अपने शोध-प्रबन्ध में पृष्ठ १५५ पर लिखते
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