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अध्याय-४
जैनधार्मिक अनुष्ठानों में कला तत्त्व
अनेक कलाएँ धार्मिक जीवन के विधि-विधानों या अनुष्ठानों का अंग बन गयीं। वैष्णवों की भक्ति की अवधारणा के विकास ने जैनों को भी शुष्क तप एवं ध्यान के साधना मार्ग से मोड़कर भक्ति की धारा में जोड़ दिया और जैन परम्परा में भक्ति मार्ग का विकास ही धार्मिक जीवन में इन कृत्यात्मक कलाओं के उपयोग का आधार बना। सर्वप्रथम यह अवधारणा आयी कि देवगण तीर्थंकर के समक्ष भक्तिवशात् विभिन्न मंगलगान, नृत्य एवं नाटक प्रस्तुत करते हैं। हमें श्वेताम्बर आगम राजप्रश्नीय में सूर्याभदेव द्वारा महावीर के समक्ष संगीत एवं नृत्य के साथ नाटक करने की कथा मिलती है। न केवल इतना अपितु वह गौतम आदि श्रमणों के सम्मुख इन्हें प्रस्तुत करने की अनुमति भगवान महावीर से माँगता है। महावीर मौन रहते हैं। उनके मौन को स्वीकृति का लक्षण मानकर वह इनका प्रदर्शन करता है। टीकाकारों ने महावीर के मौन का कारण श्रमणों के स्वाध्याय आदि में बाधा बताया है। वस्तुतः यह कथानक आगम में रखने और उसके सम्बध में महावीर का मौन दिखाने का उद्देश्य इन कलाओं की धार्मिक साधना के क्षेत्र में दबी जबान से स्वीकृति करना था।
जैनों के धार्मिक विधि-विधानों के रूप में स्तवन की स्वीकृति थी ही। इसी को भक्ति भावना के प्रदर्शन का आधार बनाकर पहले देवों के द्वारा इनके प्रदर्शन का अनुमोदन हुआ फिर गृहस्थों के द्वारा भी इनको किये जाने का अनुमोदन हुआ तथा गौतम आदि श्रमणों के माध्यम से यह बताया गया कि श्रमणों के लिए ऐसे नृत्य, संगीत के भक्ति कार्यक्रमों में उपस्थित रहना वर्जित नहीं है।
इस प्रकार तीर्थंकरों के प्रति भक्तिभाव के प्रदर्शन के रूप में नृत्य, संगीत और नाटक तीनों जैन अनुष्ठानों के साथ जुड़ गये। सर्वप्रथम स्तवन के रूप में सस्वर भक्ति-स्तोत्रों का गान प्रारम्भ हुआ और संगीत का सम्बन्ध जैन उपासना की पद्धति के साथ जुड़ा । जैन श्रमण एवं गृहस्थ उपासक भक्ति रस में डूबने लगे। फिर यह विचार स्वाभाविक रूप से सामने आया होगा कि जब देवगण नृत्य, संगीत और नाटक के द्वारा प्रभु की भक्ति कर सकते हैं तो कम से कम गृहस्थ उपासक को भी इस प्रकार से भक्ति करने का अवसर मिलना चाहिए। अतः जैन प्रतिमाओं के समक्ष न केवल वैराग्य प्रधान संगीत की स्वर
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