Book Title: Jain Dharma aur Tantrik Sadhna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 425
________________ ४०३ बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि, नाक्रामति क्रमयुगाचल - संश्रितं ते ।। ३६ । । कल्पान्त-काल- पवनोद्धत - वहिन - कल्पम्, दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वल-मुत्स्फुलिङ्गम् विश्वं जिघत्सु - मिव सम्मुख - मापतन्तम्, त्वन्नाम - कीर्तन - जलं शमयत्यशेषम् । ।४० ।। रक्तेक्षणं समद - कोकिल - कण्ठ नीलम्, क्रोधोद्धतं फणिन-मुत्फण - मापतन्तम् । आक्रामति क्रमयुगेण निरस्त - शङ्क वल्गत्तुरङ्ग- गज- गर्जित- भीमनाद - स्त्वन्नाम - नागदमनी हृदि यस्य पुंसः । ।४१।। माजा बलं बलवता - मपि भूपतीनाम् । जैनधर्म और तांत्रिक साधना उद्यद् - दिवाकर- मयूख-शिखापविद्धम्, त्वत्-कीर्तनात्तम इवाशु भिदा- मुपैति । ।४२।। कुन्ताग्र- भिन्न- गजशोणित-वारिवाहवेगावतार-तरणातुर - योध - भीमे । युद्धे जयं विजित-दुर्जय - जेय - पक्षा- स्त्वत्-पद-पङ्कज - वनाश्रयिणो लभन्ते । ।४३।। अम्भोनिधौ क्षुभित-भीषण-नक्र-चक्र Jain Education International पाठीन - पीठ-भय- दोल्वण- वाडवाग्नौ । रङ्गत्तरङ्ग-शिखर-स्थित- यान - पात्रा स्वासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति । । ४४ । । उद्भूत-भीषण - जलोदर - भार -भुग्नाः, शोच्यां दशा-मुपगताश्च्युत - जीविताशाः । त्वत्-पाद-पङ्कज- रजोऽमृत-दिग्ध - देहा, मर्त्या भवन्ति मकरध्वज-तुल्य - रूपाः ।।४५ ।। आपादकण्ठ- मुरु- श्रृङ्खल - वेष्टितग्ङ्गा, गाढं वृहन् - निगड-कोटि- निघृष्ट - जङघा । त्वन्नाम् - मन्त्र - मनिशं मनुजाः स्मरन्तः, सद्यः स्वयं विगत- बन्ध-भया भवन्ति । । ४६ ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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