Book Title: Jain Dharma aur Tantrik Sadhna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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४५८ जैनाचार्यों द्वारा विरचित ता० स्तोत्र धत्सेऽभीष्टफलानि वस्तुनिकृतिं दत्से विना संशयं । तेन त्वं विनुता मयाऽपि भवती मत्वेति मन्निश्चयं कुर्याः श्रीजिनदत्तभक्तिषु मनो मे सर्वदा सर्वथा ।।१०।।
इति श्रीचक्रेश्वरीस्तोत्रं संपूर्णम्
||श्रीचक्रेश्वरीअष्टकम्।। श्रीचक्रे! चक्रभीमे! ललितवरभुजे! लीलया लोलयन्ती चक्रं विद्युत्प्रकाशं ज्वलितशितशिखं खे खगेन्द्राधिरूढे! । तत्त्वैरुद्भूतभावे सकलगुणनिधे! त्वं महामन्त्रमूर्तिः (मूर्ते) क्रोधादित्यप्रतापे! त्रिभुवनमहिते! पाहि मां देवि! चक्रे ।।१।। कॅली कँली कँलीकारचित्ते! कलिकलिवदने! दुन्दुभिभीमनादे! हाँ ही हः सः खबीजे! खगपतिगमने! मोहिनी शोषिणी त्वम् । तच्चक्रं चक्रदेवी भ्रमसि जगति दिकचक्रविक्रान्तकीर्तिविघ्नौघं विघ्नयन्ती विजयजयकरी पाहि मां देवि! चक्रे ।।२।। श्राँ श्री यूँ श्रः प्रसिद्धे! जनितजनमनःप्रीतिसन्तोषलक्ष्मी श्रीवृद्धिं कीर्तिकान्तिं प्रथयसि वरदे! त्वं महामन्त्रमूर्तिः (मूर्ते)। त्रैलोक्यं क्षोभयन्तीमसुरभिदुरहुङ्कारनादैकभीमे! ड्ली कॅली कॅली द्रावयन्ती हुतकनकनिभे पाहि मां देवि! चक्रे ।।३।। वजक्रोधे! सुभीमे! शशिकरधवले! भ्रामयन्ती सुचक्रं हाँ ही हूँ हः कराले! भगवति! वरदे! रुद्रनेत्रे! सुकान्ते! आँ इँ उँ क्षोभयन्ती त्रिभुवनमखिलं तत्त्वतेजःप्रकाशि। ज्वाँ ज्वी ज्वीं सच्चबीजे प्रलयविषयुते! पाहि मां देवि! चक्रे! ।।४।। ॐ ह्रीं हूँ हः सहर्षे (र्ष) हहहहहसिते चक्र सङ काशबीजे! हाँ हौं हः यः क्षीरवणे! कुवलयनयने! विद्रवं द्रावयन्ती। हीं हीं (हौं) हः क्षः त्रिलो कै रमृ तजरजरैर्वा रणैः प्लावयन्ती हां ह्रीं हीं चन्द्रनेत्रे! भगवति सततं पाहि मां देवि! चक्रे!!५| आँ आँ आँ हीं युगान्ते प्रलयविच यु ते कारको टिप्र तापे! चक्राणि भ्रामयन्ती विमलवरभुजे पद ममे कं फलं च। सच्चक्रे कुङ कुमाङ कै विधृतवि (व) निरुहं तीक्ष्णरौद्र प्रचण्डे ह्रीं ह्रीं ह्रींकारकारीरमरगणतनो (वो) पाहि मां देवि! चक्रे! ।।६।। श्री श्री श्रः सवृत्तित्रिभुवन महिते नाद बिन्दु त्रिनेत्रे
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