Book Title: Jain Dharma aur Tantrik Sadhna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
४६७ जैनधर्म और तान्त्रिक साधना (E) आस्मिंश्च भूमण्डले, आयतन-निवासि–साधु-साध्वी-श्रावकश्राविकाणां रोगोपसर्ग-व्याधि-दुःख-दुर्भिक्ष-दौर्मनस्योपशमनाय शान्तिर्भवतु।
(६) ॐ तुष्टि-तुष्टि-ऋद्धि-वृद्धि-माङ्गल्योत्सवाः सदा (भवन्तु) प्रादुर्भूतानि पापानि शाम्यन्तु, (शाम्यन्तु) दुरितानि, शत्रवः पराङ्मुखा भवन्तु स्वाहा।
तिजयपहुत्त स्तोत्रं
__ -श्री मानदेवसूरि तिजयपहुत्तपयासय-अट्टमहापाडिहरजुत्ताणं। समयक्खित्तठिआणं, सरेमि चक्कं जिणंदाणं ।।१।। पणवीसा य असीआ, पनरस पन्नास जिणवरसमूहो। नासेउ सयलदुरिअं, भवियाणं भति जुत्ताणं ।।२।। वीसा पणयाला विय, तीसा पन्नतरी जिणवरिंदा। गहभूअरक्खसाइणि-घोरुवसग्गं पणासंतु।।३।। सत्तरि पणतीसा विय, सट्ठी पंचेव जिणगणो एसो। वाहि-जल-जलण-हरि-करि-चोरारि महाभयं हरउ ।।४।। पणपन्ना य दसेव य, पन्नट्ठी तह य चेव चालीसा। रक्खंतु मे सरीरं, देवासुरपणमिआ सिद्धा ।।५।। ॐ ह र हुं हः स र सुं सः, ह र हुं हः तहय चेवसरसुंसः । आलिहिय नामगभं चक्कं किर सव्वओभदं ।।६।। ॐ रोहिणि पन्नति, वज्जसिंखला तह य वज्जअंकुसिया। चक्केसरि नरदत्ता, कालि महाकालि तह गोरी।।७।। गंधारी महज्जाला, माणवि वइरुट्ट तह य अच्छुत्ता। माणसि महमाणसिआ, विज्जादेवीओ रक्खंतु ।।८।। पंचदसकम्मभूमिसु, उप्पन्नं सत्तरि जिणाण सयं । विविहरयणाइवन्नो वसोहिअं हरु दुरिआइं।।६।। चउतीससअइ सयजुआ, अट्ठमहापाडिहेरकयसोहा। तित्थयरा गयमोहा, झाए अव्वा पयत्तणं ।।१०।। ॐ वरकणयसंखविदु म-मरगयघणसन्निहं विगयमोहं । सत्तरिसयं जिणाणं, सव्वामरपूइअं वंदे स्वाहा ।।११।। ॐ भवणवइवाणवंतर-जोइसवासी विमाणवासी अ। जे के वि दुट्ठदेवा, ते सव्वे उवसमंतु मम स्वाहा ।।१२।। चन्दणकप्पूरेणं, फलए लिहिऊण खालिअं पीअं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496